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शायद चौदस-पूर्णिमा को तो पर्व तिथि कही जा सकती है पर साथ में प्रतिपदा अथवा त्रयोदशी तिथि भी आती थी। अतः पर्व के अलावा जब कभी श्रावक को अवकाश मिले उस दिन ही पौषधव्रत कर सकते हैं, ऐसा जैनागमों में कहा है।
२. श्रावक जैसे चोविहार तिविहार उपवास कर पौषधव्रत करते हैं वैसे ही एकासना आंबिल करके भी पौषध कर सकते हैं। श्रीभगवतीजी सूत्र में पोक्खली आदि अनेक श्रावकों के लिए खा पीकर पौषध करने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है, फिर भी खरतरों ने एकासना कर पौषध करना निषेध कर दिया, जिससे सैकड़ों वर्षों से बिचारे खरतरों के विश्वास पर रहने वाले श्रावक इस प्रकार पौषधव्रत से वंचित ही रहे। इसके अन्तराय कर्म के भागी वही होंगे कि जिन्होंने ऐसी उत्सूत्र प्ररुपणा की थी। आखिर अब खरतरे भी एकासना कर पौषध करने लग गये हैं जैसे हाल ही फलौदी के खरतर श्रावकों ने किया है।
३. पौषध के साथ में सामायिक दंडक भी उच्चारा जाता है और पौषध पारते हैं तब सामायिक भी पारा जाता है पर खरतरे आठ पहर का पौषध करते हैं तब पिछली रात्रि में पुनः सामायिक करते हैं और कहते हैं कि पौषध के साथ की हुई सामायिक में निद्रा आ जाने से सामायिक का भंग हो जाता है। अतः हम पुनः सामायिक करते हैं पर यह केवल हठकदाग्रह ही है। कारण दो करण तीन योग से जैसे सामायिक है वैसे ही दो करण तीन योग से पौषध है तब निद्रा लेने से पौषधव्रत का भंग नहीं होता है तो सामायिक का कैसे भंग हो जाता है। यदि ऐसा ही है तो साधु के तीन करण तीन योग से सामायिक है और वे भी संथारा पौरसी भणा के निद्रा लेते हैं, इतना ही क्यों पर उत्तराध्ययनसूत्र के २६वें अध्याय में ऐसा भी कहा है कि साधु रात्रि के समय पहले पहर में स्वाध्याय करे, दूसरे पहर में ध्यान करे, तीसरे पहर में निद्रा ले और चौथे पहर में पुनः स्वाध्याय करे । अतः श्रावक पौषध में संथारा पौरसी भणाकर प्रमादनिवार्णार्थ निद्रा ले तो उसके न तो पौषधव्रत का भंग होता है और न सामायिकव्रत का ही भंग होता है।
४. पौषध में तीन बार देववन्दन करने का शास्त्रों में विधान है पर खरतरे दो वक्त ही देववंदन करते हैं।
५. प्रतिक्रमण १. अतिचारों में सात लाख तथा अठारह पापों का विधान है पर खरतरों ने 'ज्ञान दर्शन' आदि नया ही विधान मिला दिया है। जिससे पुनरुक्ति दोष लगता
२. तीसरा आवश्यक की मुँहपत्ति का आदेश लेने का कहीं भी विधान नहीं