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के राजा दुर्लभ की राजसभा में जिनेश्वरसूरि और चैत्यवासियों के आपस में शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें जिनेश्वरसूरि खरा रहने से राजा ने उनको खरतर बिरुद दिया इत्यादि, पर यह बात बिलकुल जाली एवं बनावटी है कारण खास खरतरों के ही ग्रन्थ इस बात को झूठी साबित कर रहे हैं जैसे कि :
१. खरतरों ने जिनेश्वरसूरि के शास्त्रार्थ का समय वि. सं. १०२४ का लिखा है पर उस समय न तो जिनेश्वरसूरि ने अवतार लिया था और न राजा दुर्लभ का जन्म ही हुआ था।
२. अगर खरतर कहते हों कि वि. सं. १०२४ लिखना तो हमारे पूर्वजों की भूल है पर हम १०८० का कहते हैं तो भी बात ठीक नहीं जचती क्योंकि पाटण में राजा दुर्लभ का राज वि. सं. १०७८ तक ही रहा ऐसा इतिहास स्पष्ट जाहिर कर रहा है।
३. खरतरों ने उद्योतनसूरि, वर्धमानसूरि को भी खरतर लिखा है, इससे भी जिनेश्वरसूरि को खरतर बिरुद मिलना मिथ्या साबित होता है क्योंकि वर्धमानसूरि जिनेश्वरसूरि के गुरु और वर्धमानसूरि के गुरु उद्योतनसूरि थे जब कि उद्योतनसूरि
और वर्धमानसूरि ही खरतर थे तो जिनेश्वरसूरि के लिये खरतर बिरुद मिलना लिखना तो स्वयं मिथ्या साबित हो जाता है।
(३) खरतर आप अपने को चान्द्रकुल के होने बतलाते हैं पर खरतरों की कई पट्टावलियों से वे चन्द्रकुल के होने साबित नहीं होते हैं, उन पट्टावलियों से एक पट्टावली केवल नमूना के तौर पर यहां उद्धृत कर दी जाती है।
पट्टावलियों में सौधर्माचार्य से सुहस्तीसूरि तक के नाम तथा उद्योतनसूरि के बाद के नाम तो ठिक मिलते झुलते हैं पर सुहस्ती से उद्योतनसूरि तक के बीच के आचार्यों की नामावली में इतना अन्तर है कि किसी ने कुछ लिख दिया तो किसी ने कुछ लिख दिया है। इस समय खरतरों की बारह पट्टावलियां मेरे पास मौजूद हैं, पर उसमें शायद ही एक पट्टावली दूसरी पट्टावली से मिलती हों । देखिये नमूना।
चरित्रसिंह कृत (२) गुर्वावली १. आचार्य सुहस्ती । ३. आचार्य हरिभद्र । ५. आचार्य संडिलसूरि २. आचार्य शांतिसूरि । ४. आचार्य स्यामाचार्य । ६. आचार्य रेवतीमित्र