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अर्थ लेके इन शब्दों का निर्माण हुआ है जिसे हम आगे चलकर बता देते हैं। पहले एक सन्दिग्ध सवाल फिर उठता है वह है कि इस ग्रामीण शब्द के साथ अतिशय अर्थ के ज्ञापक तरप् प्रत्यय का संयोग करना, विशेष आश्चर्य तो इस बात का है कि जो महानुभाव शुद्ध प्रत्यय लगा सकते हों वे इन अशुद्ध शब्दों को भरी राजसभा में पण्डित मण्डली के समक्ष हार जीत के उपहार स्वरुप कैसे दे सकते हैं? अतः सभ्य समाज में यह थोथी कल्पना स्वयं गन्धर्व नगर लेखा के समान भ्रांति का हेतु सिद्ध होती है।
अब हम उपसंहार स्वरुप इस बात को वास्तविकतया निर्णीत कर जल्दी ही लेखनी को विश्राम देते हैं। वह यह है कि खरतर और कवला जय पराजय के द्योतक नहीं पर आपसी द्वेष के हेतु-भूत हैं। कारण यह है कि उपकेशगच्छीय साधुओं का और चन्द्रकुलीय साधुओं का विहार क्षेत्र प्रायः एक ही था। जब भगवान् महावीर के पांच छ: कल्याणकादि का वाद-विवाद चल रहा था, तब जिनदत्तसूरि की कठोर प्रकृति के कारण लोग उन्हें खरतर-खरतर कहा करते थे
और उपकेशगच्छीय लोग इस वाद-विवाद में सम्मिलित नहीं होते थे, अतः इन्हें कँवले-कँवले कहते थे। खरतरों ने इस शब्द को प्रायः दो सौ वर्षों के बाद अवसर पाकर गच्छ के रुप में परिणत कर दिया और कँवलो ने कँवला शब्द को कतई काम में नहीं लिया। आज तक भी उपकेशगच्छ के आचार्यों से कराई हुई प्रतिष्ठा, शिलालेख व ग्रन्थों में कहीं कवला गच्छ का प्रयोग नहीं हुआ है। जहाँ तहाँ उपकेशगच्छ का ही उल्लेख नजर आता है।
खरतर शब्द की उत्पत्ति किस कारण, कब और कैसे हुई इस विषय में हमने जिनेश्वरसरि से लगा कर जिनपतिसरि तक के ग्रन्थों एवं शिलालेखों के उदाहरण देकर यह परिस्फुट कर दिया है कि खरतर शब्द का प्रादुर्भाव उद्योतनसूरि, वर्धमानसूरि और जिनेश्वरसूरि से नहीं पर जिनदत्तसूरि से ही हुआ और यह भी कोई मान, महत्ता या बिरुद और गच्छ के रुप में नहीं, किन्तु खास कर जिनदत्तसूरि के स्वभाव के कारण ही हुआ है। यदि खरतर गच्छीय कोई भी सज्जन प्रामाणिक प्रमाण द्वारा अपने पक्ष की पुष्टि कर बतावें तो हम अपनी भूल सहर्ष स्वीकार कर उनके मत को मानने में सहमत बन जावेंगे, कारण हम सत्य संशोधक हैं वितण्डावादी नहीं। हमें सत्य की शोध चाहिए, व्यर्थ के वाद विवाद और खण्डनमण्डन नहीं। यह विषय ही सत्य की कसौटी पर कसने काबिल है। अतः यह सारा श्रम किया है। "मेरा सो सच्चा यह नहीं किंतु सच्चा सो मेरा" यही मानना आत्मार्थी सत्पुरुष का काम है।