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कल्याणमार्ग का अधिकार गद्दीधारी कलियुगी साधुओं ने जनता को भ्रम में डाल कर नष्ट भ्रष्ट बना दिया। आचार विचारों से पतित ऐसे उन साध्वाभासों ने अपनी सर्वे श्रेष्ठता बताने के लिये भगवान महावीर स्वामी के शासन में रहने पर भी श्रीपार्श्वनाथ स्वामी के शासन से अपना सम्बन्ध जोड़ दिया और लोगों में कहने लगे-हम पार्श्वनाथ के सन्तानिये हैं। भगवान श्रीपार्श्वनाथस्वामी के ऋजुप्राज्ञा साधुओं के आचार इन वक्रजड़ों ने कलुषित बना दिये-परिग्रह रखने लगे, एक स्थान पर अड्डा बनाने लगे, मन माने रंग के कपड़े पहनने लगे, अधिक क्या सब प्रकार से पतित हो चले-'विवेक भ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः' ऐसी परिस्थिति में भी सुविहित क्रियावाले साधु महात्मा यत्र तत्र आत्मकल्याण को करते कराते थे। पाटण में ऐसे साधुओं के आ जाने पर उन पतित साधुओं ने उनसे वाद किया-बाद में सुविहित साधु खरे रहे, तभी से यह सुना जाने लगा कि
हार्या ते कंवला थया, जीत्या खरतर जाणिये। तिणी काल श्री संघ में, गच्छ दोय पिछाणिये ॥
उन पतित आचार वालों ने अपना 'कंवला' ढीला गच्छ भी बना लिया। उन खरतर आचार वाले सुविहित साधुओं ने अपने तपोबल दिव्यज्ञानबल एवं योगबल से उपकेशपुर में उपकेशवंश की स्थापना की, बाद में उन उपकेशवंशवालों को अपने पक्ष में लेने के लिये उन ढीले कंवलों ने उनके नाम को भी अपने साथ जोड़ लिया और कहने लगे हम उपकेशगच्छ के हैं। तुम हमारे हो हम तुम्हारे हैं ऐसे गठ जोड़े को बांधकर अपनी झूठी पट्टावलियां चरित्र आदि बना लिये। जो पक्के और सच्चे थे वे तो उनके फंदे में आये नहीं। पर 'लोक तो बोक होते हैं' उनको भी मिल गये। जैसे सुराणों ने सुराणागच्छ बनाया, जैसे पल्लीवालों ने पल्लीवाल गच्छ बनाया। यहां मैंने अपने अभ्यास की ही बातें लिखी हैं। इस सम्बन्ध में अधिक प्रकाश डालने के लिये 'उपकेशवंश महाप्रबन्ध' लिखने का विचार है, समय ने साथ दिया तो पाठकों को भेंट करूंगा।
"चोरड़ियों के प्रतिबोधक, पृष्ठ १५" यह तो केवल नमूना के तौर पर थोड़ा सा हाल बतलाया है पर इस प्रकार के तो कई आक्षेप किये हैं और इन आक्षेपों को कई अर्सा गुजर गया है पर किसी भी खर-तर विद्वान ने इसका विरोध नहीं किया, इससे पाया जाता है कि इस आक्षेपों में सब खरतरों की सम्मति होगी।
१. इन आक्षेपों के प्रतिकार के लिए देखो मेरी लिखी पुस्तक "त्रिकुटों का प्रतिकार"।