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४. धर्मघोषसूरि को - वादी चूड़ामणि धर्मघोषसूरि । ५. अमरचन्द्रसूरि को - सिंहशिशुक अमरचन्द्रसूरि । ६. आनन्दसूरि को - व्याघ्रशिशुक आनन्दसूरि । ७. जगच्चन्द्रसूरि को - तपा जगच्चन्द्रसूरि । ८. हेमचन्द्रसूरि को - कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि । ९. कक्कसूरि को - राजगुरु कक्कसूरि। १०. विजयसिंहसूरि को - खड्गाचार्य विजयसिंहसूरि । ११. नेमिचन्द्रसूरि को - सिद्धान्त चूडामणि नेमिचन्द्रसूरि ।
अनेक आचार्यों को बिरुद मिला और उनके नाम के साथ प्रसिद्ध भी हुआ। पर जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में एक भूपति बिरुद दे और वह इस भाति गुप्त रह जाय, यह विचारणीय विषय है। आचार्य जिनेश्वरसूरि ने पंच लिंगी प्रकरण, वीर चरित्र, निर्वाण लीलावती, कथाकोष, प्रमाण लक्षण, षट्स्थान प्रकरण और हरिभद्रसूरि के अष्टकों पर वृत्ति आदि अनेक ग्रंथों की रचना की। इन ग्रन्थों का रचना समय वि. सं. १०८० से १०९५ तक का होने पर भी किसी ग्रन्थ की रचना, प्रस्तावना या प्रशस्ति में कहीं पर भी जिनेश्वरसूरि ने खरतर शब्द का प्रयोग तक नहीं किया।
बुद्धिसागरसूरि जो जिनेश्वरसूरि के गुरुभाई थे, उन्होंने "बुद्धिसागर नामक व्याकरण" आदि कई एक ग्रंथों की रचना की, पर किसी स्थान पर यह नहीं लिखा कि जिनेश्वरसूरि को "खरतर" बिरुद मिला था।
जिनेश्वरसूरि के शिष्य धनेश्वरसूरि हुए, जिन्होंने सुरसुन्दरी कथा आदि कई ग्रन्थ लिखे, पर उन्होंने भी कहीं पर यह नहीं लिखा कि हम "खरतर गच्छ" के हैं, या जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में 'खरतर बिरुद' मिला था।
जिनेश्वरसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि हुए, आपने "संवेग रंगशालादि" कई ग्रंथों की रचना की, परन्तु कहीं पर खरतर होना नहीं लिखा ।
आचार्य अभयदेवसूरि "जो जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर थे" ने नौ अंग की टीका तथा हरिभद्रसूरि रचित चाशक पर टीका, जिनेश्वरसूरि कृत षट्स्थान प्रकरण पर भाष्य और आराधना कुलक आदि कई ग्रन्थों की रचना की, पर इन्होंने किसी स्थान पर यह नहीं लिखा कि जिनेश्वरसूरि को "खरतर बिरुद" मिला या मैं खरतर गच्छ में हूँ। उन्होंने तो स्पष्ट लिखा है कि मैं चन्द्रकुल में हूँ। इस विषय के अनेक प्रमाण भी मिल सकते हैं। मैं यहाँ पर खास अभयदेवसूरि के ही प्रमाण उद्धृत कर बतला देना चाहता हूँ कि जिनेश्वरसूरि से अभयदेवसूरि तक कहीं पर "खरतर"