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उनके हाथ लग गया। उन्होंने जिनवल्लभसूरि का यत्र तत्र तिरस्कार किया। इधर जिनवल्लभसूरि ने अपना नया मत (विधिमार्ग) स्थापित किया। उन्होंने परम्परा से चली आती हुई कई क्रियाओं में फेरफार किया। जैसे पाँच के बदले छ: कल्याणक, अधिक मास उदयतिथि आदि कई नई प्ररुपणा की, परन्तु उसमें आप सफल नहीं हो सके। आपका आयुष्य भी बहुत कम था। आचार्य होने के अनन्तर केवल छ: मास ही जीवित रहे। उनके बाद उनके समुदाय में एक महान् मतभेद पैदा हुआ
और वह था आचार्य पदवी के निमित्त । एक पार्टी का यह कहना था कि आचार्य जिनदत्तसूरि को बनाया जाय और दूसरी पार्टी का आग्रह था कि जिनशेखरसूरि को आचार्य बनाया जाय। इस मतभेद ने इतना उग्र रुप धारण किया कि आपस में फूट पड़ने से दोनों आचार्य बन गये और क्लेश कदाग्रह बढ़ते ही रहे। आचार्य जिनदत्तसूरि की प्रकृति खरतर होने से लोग उनको खरतर खरतर कहने लगे। इस शब्द से नाराजी पैदा होना स्वाभाविक है। जिनवल्लभसूरि की छ: कल्याणकादि की नई प्ररुपणा जिनदत्तसूरि भी करते थे। इस विषय में कई लोग उनसे प्रश्न करते थे, तो उसका उत्तर भी बड़ी तीक्ष्णता (कठोरता) से दिया जाता था। इस कारण लोग उनको खरतर कहा करते थे।
यह बात केवल दन्तकथा ही नहीं है, पर आचार्य जिनदत्तसूरि के समकालीन या उनके आसपास के समय के प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होती हैं, जैसे आचार्य जिनपत्तिसूरि (वि. सं. १२३३ में विद्यमान थे जब जिनदत्तसूरि का स्वर्गवास वि. सं. १२११ में हुआ। इस वास्ते यह समय बहुत निकट का कहा जा सकता है) के शिष्य सुमतिगणि ने गणधर सार्द्धशतक की बृहत् वृत्ति में लिखा है कि आचार्य जिनदत्तसूरि प्रकृति के बड़े ही तेज (कठोर) थे। प्रश्नों के उत्तर तेजी से देने के कारण लोग आपको खरतर खरतर कहा करते थे, इतना ही नहीं पर सुमतिगणि ने तो इस बृहद् वृत्ति में जिनदत्तसूरि का सम्पूर्ण जीवन चरित्र भी लिख दिया है, कि कई एक लोगों ने जिनदत्तसूरि के साथ कई तरह की अघटित घटनाओं को जोड़ जनता को कैसा धोखा दिया है, जिसकी गन्ध भी आपके जीवन में नहीं है। खैर, यदि खरतर शब्द पुराना होता तो जिनशेखरसूरि भी जिनेश्वरसूरि के साथ खरतर शब्द लिखते, पर जिनशेखरसूरि के बाद भी जिनेश्वरसूरि के साथ किसी ने खरतर बिरुद नहीं माना है। देखिये श्री वर्धमानसूरि कृत "आचार दिनकर" की टीका जो वि. सं. १४५८ में जयानन्दसूरि ने बनाई, जिसमें लिखा है :
श्रीमज्जिनेश्वरः सूरिजिनेश्वरमतं ततः । शरद्राकाशशिस्पष्ट-समुद्रसदृशं व्यधात् ॥ १२ ॥