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वि. सं. १०७८ में ही समाप्त हो चुका था" ऐसा लिखा है। और भी अनेक प्रमाण इसकी पुष्टि में मिलते हैं। इतना ही नहीं पर खुद जिनेश्वरसूरि वि.सं. १०८० में जावलीपुर में स्थित रह कर हरिभद्रसूरि कृत अष्टको पर वृत्ति लिख रहे थे, इससे भी सुस्पष्ट होता है कि वि. सं. १०८० में जिनेश्वर का दुर्लभ राजा की राजसभा में शास्त्रार्थ होना केवल मनःकल्पित कल्पना ही है।
पूर्वोक्त ऐतिहासिक प्रमाणों से यह साबित हो गया कि वि. सं. १०८० में न तो पाटण में दुर्लभराज का राज्य था और न उस समय कोई शास्त्रार्थ ही हुआ, न जिनेश्वरसूरि को दुर्लभ राजा ने 'खरतर बिरुद' ही दिया। यदि खरतरगच्छ वाले इस बात को प्रमाणित करने को कोई भी विश्वसनीय प्रमाण पेश करें तो हमें इस बात को मानने में कोई आपत्ति नहीं है। अन्यथा खरतर गच्छीय विद्वानों को अपनी भूल स्वीकार करनी चाहिए या सुधार लेनी चाहिए कि हमने वि. सं. १०८० में दुर्लभ राजा के यहाँ शास्त्रार्थ होने का लिखा वह गलत है। शास्त्रार्थ वि. सं. १०७८ के पहले किसी समय हुआ हो, तो यह बात संभव हो सकती है। कारण उस समय राजसभाओं में व्याख्यान देना व धार्मिक विषयों के निर्णयार्थ शास्त्रार्थ करना प्रचलित था। जिनेश्वरसूरि वर्धमानसूरि के पट्टधर थे और वर्धमानसूरि चैत्यवासियों में अग्रेसर थे, अर्थात् ८४ चैत्यों के मालिक थे। यदि जिनेश्वरसूरि ने किसी समय चैत्यवास का त्याग एवं क्रियोद्धार कर चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ किया हो और उनको इस कार्य में विजय भी मिली हो तो यह बात सर्वथा असम्भव प्रतीत नहीं होती। पर यहाँ तो प्रश्न है "खरतर बिरुद" का, न कि शास्त्रार्थ का । राजा दुर्लभ या अन्य किसी नृपति ने श्री जिनेश्वरसूरि को "खरतर बिरुद' दिया या नहीं? कारण शास्त्रार्थ की विजय के उपलक्ष्य में बिरुद मिलना यह कोई साधारण बात नहीं पर बड़े महत्व का विषय है। ऐसे महत्व के विषय को जिनेश्वरसूरि तथा आपकी सन्तान भूल जाय और बाद में १२५ वर्षों से फिर वह बिरुद प्रकाश में आवे? इसे मानने में जरा जीव हिचकिचाता है। क्योंकि हम प्रायः देखते हैं कि अन्याचार्यों को राजाओं की ओर से जो बिरुद मिले हैं, वे उनके नाम के साथ सदैव के लिए उसी समय से जुड़ जाते हैं। जैसे :
१. बप्पभट्टसूरि को - वादी-कुञ्जर-केसरी बप्पभट्टसूरि । २. शान्तिसूरि को - वादीवेताल शान्तिसूरि । ३. देवसूरि को - वादी-देवसूरि ।
१. देखो मेरा लिखा "निराकरण निरीक्षण" नामक प्रबन्ध ।