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सकता है, दूसरा अभयदेवसूरि शुद्ध चन्द्रकुल की परम्परा में थे तब जिनवल्लभसूरि कुर्चपुरीया गच्छ के चैत्यवासी साधु था ।
१८. जगचिन्तामणि के चैत्यवंदन में भी खरतरों ने न्यूनाधिक कर दिया है जैसे कि
"सत्ताणवइ सहस्सा, लक्खा छप्पन्न अठ्ठ कोडीओ। बत्तिसय बासिआइं, तिअलोए चेइए वंदे ॥ पनरस कोडिसयाई, कोडी बायाल लक्ख अडवन्ना ।
छत्तीस सहस असिइं, सासयबिंबाइं पणमामि ॥" इसके बदले में खरतरों ने दो गाथा इस प्रकार लिख दी हैं। "सत्ताणवइ सहस्सा, लक्खा छप्पन्न अट्ट कोडीओ। चउसय छायासीया, तिअलोए चेइए वंदे ॥ वन्दे नवकोडिसयं, पणवीसं कोडि लक्ख तेवन्ना। अट्ठावीस सहस्सा, चउसय अट्टासिया पडिमा ॥" और भी कई ऐसी बातें हैं कि खरतरे परम्परा से विरुद्ध करते हैं जैसे कि
१. प्रतिक्रमण के आदि में 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्' कहना शास्त्रों में कहा है तब खरतर इसको नहीं कहते हैं।
(शुद्ध समाचारी प्रकाश, पृष्ठ १८५) २. प्रतिक्रमण में साधु आयरिय उवज्जाये तीन गाथा कहते हैं परन्तु खरतर नहीं कहते हैं।
(शुद्ध समाचारी, पृष्ठ १९६)
१९. खरतरमत (१) आचार्य जिनेश्वरसूरि और अभयदेवसूरि शुद्ध चान्द्रकुल की परम्परा में हैं ऐसा खुद अभयदेवसूरि ने अपनी टीका में लिखा है, पर आधुनिक खरतर इन आचार्य को खरतर बनाने का मिथ्या प्रयत्न कर रहे हैं। देखो खरतरमतोत्पत्ति भाग १-२-३।
(२) यह बात निश्चित हो चुकी है कि खरतर मत की उत्पत्ति जिनदत्तसूरि की प्रकृति के कारण हुई है, पर खरतरलोग कहते हैं कि वि. सं. १०८० में पाटण १. 'खामणाणिमितं पडिक्कमणणिवेदणत्थं वंदंति ततो आयरियमादी पडिक्कमणत्थमे वदंसेमाणा
खामेति । उक्तं च आयरिय उवज्जाए सीसे साहम्मिए कुलगणेवा' इत्यादि गाथात्रिक पढ़ने को कहा है।