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यह विचार नहीं किया कि पंचम आरा में जब साधु साधुपना भी पालन करता है जो श्रावक के प्रतिमावाहन से कई गुणा कष्ट परिसह सहन करना पड़ता है तो फिर श्रावक प्रतिवाहन क्यों नहीं कर सकेगा? यदि कहो कि श्रावक से इतने परिसह सहन नहीं हो सकते हैं तो सोचना चाहिये कि साधु होते हैं वह सब श्रावक के घरों से ही होते हैं, यदि वे श्रावक परिसह सहन करने में इतने कमजोर होंगे तो वे साधुत्व को कैसे पालन कर सकेंगे? खरतरों को तो ज्यों त्यों कर शासन के अंग प्रत्यंगों को काटना था।
१४. मासकल्प १. बृहत्कल्पादि सूत्रों में साधुओं के नौकल्पी विहार का अधिकार लिखा हुआ मिलता है। अतः शीतोष्ण काल के आठ मास के आठ कल्प और चातुर्मास के चार मास का एक कल्प एवं नौकल्प कहा है। पर खरतरों ने पंचमारा का नाम लेकर मासकल्प का भी निषेध कर दिया। इसमें मुख्य कारण क्षेत्र-ममत्व और जिह्वा की लोलुपता ही है।
१५. उपधान १. शास्त्रकारों ने साधुओं के योगद्वाहन और श्रावकों के उपधान तप का शास्त्रों में प्रतिपादन किया है पर खरतरों ने योगद्वाहन को तो माना है पर उपधान का निषेध कर दिया था, फिर भी कृपाचन्द्रसूरि ने खरतर होते हुये भी अपने पूर्वजों के निषेध किये उपधान करवाये थे।
१६-पूर्वाचार्योंने आंबिल के लिये लिखा है कि जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट एवं तीन प्रकार के आंबिल होते हैं। अतः आंबिल में दो द्रव्य एवं दो से अधिक द्रव्य' भी खा सकते हैं पर खरतरों ने आंबिल में दो द्रव्य का ही आग्रह कर रखा
१७. जिनवल्लभसूरि कुर्चपुरागच्छ के चैत्यवासी जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे और उन्होंने गुरु को छोड़ अपना विधि मार्ग नामक एक नया मत चलाया था पर खरतर कहते हैं कि जिनवल्लभसूरि अभयदेवसूरि के पट्टधर थे किन्तु यह बात बिलकुल गलत है। कारण अभयदेवसूरि अपनी विद्यमानता में वर्धमानसूरि को अपना पट्टधर बना गये थे। अतः जिनवल्लभ अभयदेवसूरि के पट्टधर नहीं हो
१. मलधारगच्छिय हेमचंद्रसूरि के शिष्य चंद्रसूरि ने लघुप्रवचन सारोद्धार ग्रन्थ में कहा है
कि आंबिल में दो द्रव्य के अलावा और भी कई द्रव्य खा सकते हैं।