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बनाकर रखते हैं।
३. सामायिक १. सामायिक लेने के पूर्व क्षेत्रविशुद्धि के लिये श्रावक को इर्यावही करना शास्त्र में लिखा है पर खरतर क्षेत्र विशुद्धि न करके पहले सामायिक दंडक उच्चार कर बाद में इर्यावही करते हैं। यदि उनको पूछा जाय कि सामायिक लेते समय सावद्य योगों का प्रत्याख्यान कर लिया फिर तत्काल ही कौन सा पाप लगा कि जिसकी इर्यावही की जाती है? शायद खरतरमत में सामायिक दंडक उच्चारना भी पाप माना गया हो कि सामायिक दंडक उच्चरते ही इर्यावही करना पड़े पर उल्टे मत के सब रास्ते ही उल्टे होते हैं।
२. सामायिक लेने के पूर्व अब्भुट्ठिओं कहने का विधान न होने पर भी खरतरों ने यह पाठ कहना शुरु कर दिया है।
३. साधु दीक्षा लेते हैं तब उनको नान्द के तीन प्रदक्षिणा करवाते हुये तीन बार सामयिक दंडक उच्चराया जाता है जो जावजीव के लिये है। पर खरतरों ने श्रावक के इतरकाल की सामयिक भी तीन बार उच्चरानी शुरु कर दी। यह कैसी अनभिज्ञता है?
४. सामायिक लेने के बाद 'पांगरणुसंदिसाहूँ' का किसी स्थान पर विधान न होने पर भी खरतरों ने यह नयी ही क्रिया कर डाली है।
५. सामायिक में स्वाध्याय के स्थान तीन नवकार कहा जाता है। पर खरतरों ने ८ नवकार कहना शुरु कर दिया। यह नये मत की नयी क्रिया है।
६. दो घड़ी की सामायिक में मन वचन काया के योगों से किसी प्रकार अतिचार लगा हो तो सामायिक पारने के पूर्व इर्यावही करना खास जरुरी है। पर खरतरे नहीं करते हैं।
७. सामायिक पारते समय ‘सामाइयवयजुत्तो' पाठ कहना चाहिये पर खरतरों ने एक नया ही पाठ बना रखा है जो 'भयवंदसण्णभद्दो' कहते हैं।
४. पौषधव्रत १. पर्वतिथि में श्रावक नियमित पौषधव्रत करे पर पर्व के अलावा अन्य दिन भी अवकाश मिले तो श्रावक पौषधव्रत कर सकते हैं पर खरतरों ने अज्ञानवश यह हठ पकड़ लिया है कि श्रावक पर्व के अलावा पौषधव्रत नहीं कर सकते । इसमें सिवाय अन्तराय कर्मबन्ध के कोई लाभ नहीं है। कारण, सुखविपाक सूत्र में सुबाहुकुमार और ज्ञातासूत्र में नन्दन मिणियार ने एक साथ तीन दिन पौषध किये हैं। इसी प्रकार और भी बहुत से श्रावक तीन तीन दिन पौषधव्रत करते थे। इसमें