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३. देरासर में जुवान वेश्या नहीं नचावी, किन्तु जे नानी के वृद्ध वेश्या होय ते नचाववी एवी देशना करी।
४. गोत्रदेवी तथा क्षेत्रपालादिकनी पूजा थी सम्यक्त्व भागे नहीं एम ठेराव्युं । ५. अमे ज युगप्रधान छीए एम मनावा मांड्युं ।
६. वली एवी देशना करवा मांडी के एक साधारण खातानुं बाजोठ (पेटी) राखवू, तेने आचार्य नो हुकम लई उघाडवू । तेमांना पैसामांथी आचार्यादिकना अग्नि-संस्कार स्थाने स्तूपादिक कराववी तथा त्यां यात्रा अने उजणीओ करवी ।
७. आचार्योंनी मूर्तियो कराववी।
८. चक्रेश्वरीनी स्तुतिमां जिनदत्तसूरिए कहुं छे के विधिमार्गना शत्रुओना गला कापी नाखनार चक्रेश्वरी मोक्षार्थी जनना विघ्न निवारो।
शतपदी' गुर्जर अनुवाद, पृष्ठ १४९ ऐसी पच्चीस बातें जिनदत्तसूरि के लिये लिखी हैं जिसके अन्दर से केवल नमूने के तौर पर मैंने ८ बातें ऊपर लिखी हैं, जिससे पाठक समझ सकते हैं कि जिनदत्तसूरि की अन्य गच्छीयों के साथ कैसी भावना थी कि उन सबके गले कटवा डालने की चक्रेश्वरी देवी से प्रार्थना करते हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि जिनवल्लभ ने महावीर के गर्भापहार नामक छट्ठा कल्याणक की प्ररुपणा कर अपना 'विधिमार्ग' नामक मत निकाला तथा उनके पट्टधर जिनदत्तसूरि ने स्त्रियों को जिनपूजा निषेध कर उत्सूत्र प्ररुपणा की। यही कारण था कि श्रीसंघ ने उनको संघ बाहर कर दिया, जिससे रुष्टमान होकर उनका कुछ बश नहीं पहुंचा तब जाकर चक्रेश्वरीदेवी से प्रार्थना कर अपने तप्त हृदय को शीतल किया। ऐसा व्यक्ति आप पुजाने के लिये मकान में पेटी रखवा कर पैसा डलवावे और उन पैसों से दादावाड़ी एवं पादुकाएं स्थापन कराये इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि जहाँ दिवाला होता है वहां इस प्रकार कल्पित आडम्बर की जरुरत रहा ही करती है। कालान्तर में इधर तो जैन साधुओं का मरुधरादि प्रान्तों में विहार कम हुआ, उधर खरतरों के यतियों ने जनता को धनपुत्रादिक का प्रलोभन देकर दादाजी की झूठी झूठी तारीफें करके बहका दिया एवं उन बिचारे भद्रिक लोगों को धोखा देकर उनके द्रव्य से दादावाड़ी वगैरह बना ली और वे लोग अपनायत के कारण जहाँ तक उन उत्सूत्रवादियों की कुटिलता को नहीं जानते थे वहाँ तक मानते भी थे, इससे क्या हुआ? कर्म सिद्धान्त से अज्ञात लोग धन पुत्रादि के पिपासु दादाजी तो क्या पर १. संवत १२६३ में धर्मघोषसरि ने प्राकत भाषा का शतपदी नामक ग्रंथ रचा था, जिसको
सं. १२९४ में आचार्य महेन्द्रसिंहसूरि ने उस प्राकृत शतपदी से संस्कृत शतपदी लिखी, जिसको वि. सं. १९५१ में श्रावक रवजी देवराज ने गुजराती अनुवाद छपाया।