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झूठ बोलना झूठ लिखना तो इस खरतरमत का शुरु से मूल सिद्धान्त ही है। जब ये खास भगवान और पूर्वाचार्यों के वचनों को अन्यथा करने का भी डर नहीं रखते हैं तो झूठ लेख लिखने का तो भय ही क्यों रक्खें? खरतरों ने जिनेश्वरसूरि को ही क्यों पर वर्धमानसूरि, उद्योतनसूरि और गणधर सौधर्म एवं गौतम को भी खरतर लिख दिया। यह भी खरतरों के ही लिखे हुए लेख हैं। अतः जैतारनादिकी मूर्तियों पर खरतरों के खुदाये हुए जाली लेखों पर कोई भी व्यक्ति विश्वास कर धोखे में न आवे । क्योंकि वे लेख सत्रहवीं शताब्दी में जिनचन्द्र ने खुदाये हैं और उन शिलालेखों की लिपि भी सत्रहवीं शताब्दी की लिपि से मिलती जुलती है।
यह तो एक नमूना मात्र ही बतलाया है पर इस प्रकार तो खरतरों ने कई अनर्थ किये हैं। प्रवचन परीक्षा नामक ग्रन्थ में उपाध्याय धर्मसागरजी महाराज लिखते हैं कि :
जेणं जिणदत्तमए, पुराणपाढणमण्णहा करणे । परलोअभयभीआ, अज्जवि दीसंति वेसहरा ॥ ४६॥
अर्थात् जिनदत्त के मत में पुराणे पाठों को चुराने एवं रद्दोबदल करने वाले आज भी कई वेषधारी विद्यमान हैं। यह बात उपाध्यायजी ने केवल इधर उधर की सुनी हुई बातों के आधार पर ही नहीं लिखी है, पर अपने नाडोल (नारदपुरी) के भंडार की पुराणी प्रतियों से जैसलमेर की प्रतियों का मिलान करके ही लिखी है। पर जब खास गणधर भगवान के आगमों को भी अन्य या प्ररुपने में खरतरों को भय एवं लज्जा नहीं है तो दूसरों का तो कहना ही क्या है? अतः खरतर मत चौरासी गच्छों में गच्छ नहीं पर उत्सूत्रवादी मतों में एक मत है जो उपरोक्त प्रमाणों से साबित हो चुका है।
प्रश्न-यदि आपके कथनानुसार विधिमार्ग एवं खरतरमत उत्सूत्र से ही पैदा हुआ है तो फिर इस मत की इस प्रकार वृद्धि होना और हजारों लोगों का इसको मानना और आज सात आठ सौ वर्षों से अविच्छिन्न रुप से चला आना कैसे माना जा सकता है?
उत्तर-इसके लिये पहले तो आपको 'खरतरों की बातें' नाम की पुस्तक मंगवा कर पढ़ना चाहिये जो श्रीमान् केसरचन्दजी चोरड़िया की लिखी हुई है। बस ! आपका समाधान स्वयं हो जायेगा। दूसरे मत चलना तथा उसकी वृद्धि होना या हजारों लोगों का मानना और सात आठ सौ वर्ष तक चला आना यह सब बातें एकान्त सत्यता के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखती हैं क्योंकि आप स्वयं सोच