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चांपादेवी को वहां जाने से मना कर रखा था। मगर रायसिंहजी के दीवान करमचन्द के भेद दे देने से (जो बीकानेर से निकाला हुआ बादशाह के पास रहता था) बादशाह पृथ्वीराज से उनकी अंगूठी देखने के बहाने लेकर महल में चले गये। जहां से वह अंगूठी चांपादे रानी के पास पृथ्वीराज के नाम से भेज कर कहलाया कि तुमको मीनाबाजार में जाने की आज्ञा है। रानी धोखे में आकर चली गई।"
राजरसनामृत, पृष्ठ ४० 'दीवान कर्मचंद के भेद दे देने से' - इस शब्द का क्या अर्थ हो सकता है? क्या राठौर वीर पृथ्वीराज की रानी चम्पादेवी को बादशाह अकबर से मिलाने का उपाय कर्मचन्द ने बतलाया था ? जिससे बादशाह चम्पादेवी को मीनाबाजार में बुला कर उससे मिला। यदि यह बात गलत है तो जैनसमाज को इसका जोरों से विरोध करना चाहिये।
मैंने ये दो बातें लिखी हैं, इसमें मेरा आशय जैन समाज को चैतन्य कर उनको अपने कर्तव्य का भान कराना है।
इनके अलावा श्रीयुत छोटेलाल शर्मा फुलेरा वालों ने ई. सन् १९१४ में एक "जाति अन्वेषण प्रथम भाग" नामक किताब मुद्रित करवाई थी, जिसके पृष्ठ १३२ से १३८ तक ओसवालों की जातियों के लिये ऐसा मिथ्या आक्षेप किया था कि ओसवालों में शूद्र जातियां जो भंगी, ढेढ़, चमार आदि भी शामिल हैं अतः इनको शूद्र जाति में ही दर्ज करना चाहिये । वह किताब मैंने सन् १९२६ में पीपाड़ में देखी तो पीपाड़ श्रीसंघ को उपदेश दिया और उन्होंने शर्माजी को एक नोटिस भी दिया। जवाब में शर्माजी ने अपनी भूल को स्वीकार कर ली, इतना ही क्यों पर उन्होंने लिखा कि इस विषय में जो आप सत्य बात भेजेंगे तो मैं छापने को तैयार हूँ इत्यादि ।
- इस प्रकार जैनधर्म के सुयोग्य पुरुषों पर अन्य लोगों ने कई प्रकार के आक्षेप किये हैं, परन्तु जैनियों को घर के झगड़ों के अलावा इतना समय कहां मिलता है कि वे इस प्रकार साहित्य का अन्वेषण करके अपने पूर्वजों पर लगाये हुये लांछनों का मुंहतोड़ उत्तर दें । इतना ही क्यों पर कोई व्यक्ति इस प्रकार की बातें समाज के सामने प्रगट करे तो उल्टा अपमान समझ कर उस पर एक दम टूट पड़ते हैं परन्तु यह नहीं सोचते हैं कि यदि हम इन बातों का प्रतिकार न करें तो भविष्य में इसका क्या बुरा परिणाम होगा? खैर, मैंने तो इसको ठीक समझ कर ही जैनसमाज के सामने रक्खा है। अब इस पर योग्य विचार करना जैन समाज का कर्तव्य है।
इति खरतरमतोत्पत्ति भाग तीसरा समाप्तम्