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बाद लोंकाशाह वगैरह ने तो उस जिनदत्तसूरि का अनुकरण ही किया है। हां जिनदत्तसूरि ने केवल स्त्रियों को जिनपूजा करने का निषेध किया तब लोकाशाह ने स्त्री और पुरुष दोनों को जिनपूजा का निषेध कर दिया पर इनका मूल कारण तो जिनदत्तसूरि ही थे।
यदि जिनदत्तसूरि की मान्यता थी कि तीर्थंकर पुरुष थे उनको स्त्रियां छू नहीं सकती हैं पर वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों में उन्नीसवे मल्लिनाथ तीर्थंकर तो स्त्री थे। खरतरियों के लिये मल्लिनाथ की मूर्ति पूजना रख देते तो बिचारी खरतरियां जिनपूजा से तो वंचित नहीं रहतीं, पर जिनदत्तसूरि में उस समय इतनी अकल ही कहां थी? उसने तो मिथ्यात्व के प्रबलोदय से स्त्रियों को जिनपूजा करना निषेध कर ही दिया। फिर भी जैन शासन की तकदीर ही अच्छी थी कि जिनदत्तसूरि ने एक स्त्री को ही आशातना करती देख स्त्रियों को ही जिनपूजा करना निषेध किया। यदि इसी प्रकार किसी पुरुष को आशातना करता देखता तो पुरुष को भी पूजा करना निषेध कर देता।
___ आगे चल कर जिनदत्तसूरि ने तो यहां तक आग्रह कर लिया कि स्त्रियां जिन तीर्थंकर को छू नहीं सकती थीं तो वे उन की प्रतिमाओं को कैसे छू सकती हैं। इस बात का उसने केवल जबानी जमाखर्च ही नहीं रखा था पर अपने ग्रन्थों में लेख भी लिख दिया। देखो जिनदत्तसूरि कृत कुलक जिस पर जिनकुशलसूरि ने विस्तार से टीका रची है जिसमें लिखा है कि :
संभवइ अकालेऽविहु कुसुमं महिलाण तेण देवाणां । पूआई अहिगारो, न ओघओ सुत्तनिदिट्ठो ॥ १ ॥ न छिविंति तहा देहं ओसरणे, भावजिणवरिंदाणं । तह तप्पडिमंपि सया पूअंति न सङ्कनारिओ ॥ २ ॥
प्र. प., पृ. ३७१ यही कारण है कि खरतर मत में आज भी स्त्रियां जिनपूजा से वंचित रहती हैं । इतना ही क्यों पर जैसलमेरादि कई नगरों के मन्दिर खरतरों के अधिकार में हैं, वहाँ अन्य गच्छवालों की ओरतों को खरतर जिनपूजा नहीं करने देते हैं, इस अन्तराय का मूल कारण तो जिनदत्तसूरि ही हैं ।
इसी प्रकार महोपाध्यायजी धर्मसागरजी ने अपने प्रवचन परीक्षा नामक ग्रन्थ के पृष्ठ २६७ पर लिखा है कि :
अह अण्णया कयाई, रूहिरं दठूण जिणहरे रूट्ठो । इत्थीण पच्छितं देइ, जिणपूअपडिसेहं ॥ ३५ ॥