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को चाहने वाली होती है।
वि. सं. १२०४ में जिनदत्तसूरि पाटण जाता है और एक दिन वह मन्दिर में गया। वहां पर कुछ रक्त के छींटे देखे। इस निमित्त कारण से उसके मिथ्यात्व कर्म का प्रबल उदय हो आया और उसने यह मिथ्या प्ररुपणा कर डाली कि स्त्रियों को जिनप्रतिमा की पूजा करना नहीं कल्पता है। अतः कोई भी स्त्री जिन प्रतिमा की पूजा न करे इत्यादि।
उस समय का पाटण जैनों का एक केन्द्र था। केवल १८०० घर तो करोड़पतियों के ही थे । परमार्हत महाराज कुमारपाल वहां का राजा था। कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य एवं राजगुरु कक्कसूरि जैसे जिनशासन के स्तम्भ आचार्य वहां विद्यमान थे। इस हालत में जिनदत्त की इस प्रकार उत्सूत्र प्ररुपणा को पट्टण का श्रीसंघ कैसे सहन कर सकता था? जब जिनदत्त की उत्सूत्र प्ररुपणा के समाचार उन शासनस्तंभ धुरंधर आचार्यों के कानों तक पहुंचे तो उनको बड़ा ही दुःख हुआ। कारण, जिनवल्लभ की वीर गर्भापहार रुपी उत्सूत्र प्ररुपणा तो अभी शासन को कांटा खीला की भांति खटक ही रही थी, फिर जिनदत्त ने इस प्रकार उत्सूत्र प्ररुपणा क्यों की है? जैनागमों में चेलना, सिवा, प्रभावती, मृगावती, जयन्ति, सुलसा और द्रौपदी वगैरह अनेक महिलाओं ने परमेश्वर की द्रव्य भाव से पूजा की, जिसके उल्लेख आगमों में स्पष्ट मिलते हैं। अतः इसके लिए सभा करके जिनदत्तसूरि को समझाना चाहिये। यदि वह समझ जाय तो ठीक, नहीं तो जिनदत्त का संघ से बहिष्कार कर देना चाहिये। जैसे कि जिनवल्लभ का श्रीसंघ ने बहिष्कार कर दिया था, इत्यादि। इस बात की नगर में खूब गरमागरम चर्चा चल पड़ी।
जिनदत्तसूरि एक हटकदाग्रही व्यक्ति था। उसने आन्दोलन की बात सुन कर सोचा कि एक तरफ तो राजा कुमारपालादि सकल श्राद्ध संघ तथा दूसरी ओर हेमचन्द्रसूरि आदि श्रमण संघ है। यहां मेरी कुछ भी चलने की नहीं है, अतः रात्रि में एक शीघ्रगामी ऊंट मंगवा कर उस पर सवार हो रात्रि में ही पलायन कर गया, जैसे पुलिस के भय से चोर पलायन कर जाते हैं। जिनदत्त पाटण से ऊंट पर सवारी कर थोड़े ही समय में जावलीपुर पहुंच गया, तब जाकर उसने थोड़ा निर्भयता का श्वास लिया, जैसे चोर पल्ली में जाकर निर्भयता का श्वास लेता है।
सुबह श्रीसंघ ने खबर मंगाई तो मालूम हुआ कि जिनदत्त तो रात्रि में ही पलायन कर गया है। अतः श्रीसंघ ने यह निश्चय किया कि जहां जिनदत्त गया हो वहां के श्रीसंघ को लिख दिया जाय कि यदि जिनदत्त आपके यहां स्त्री जिनपूजा