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शायद यह वचनबन्धी जिनवल्लभ की षट् कल्याणकादि उत्सूत्र प्ररुपणा को मान कर उसकी ही प्ररुपणा करने की होगी। खैर, सोमचन्द्र ने देवभद्राचार्य के कहने को मंजूर कर लिया क्योंकि गरजवान् क्या नहीं करता है।
जिनवल्लभ का देहान्त होने के बाद २ वर्ष से अर्थात् वल्लभ का देहान्त वि. सं. ११६७ में हुआ तब वि. सं. ११६९ में देवभद्र ने सोमचंद्र को चित्तौड़ ले जाकर वल्लभ का पट्टधर बना दिया और उस सोमचन्द्र का नाम जिनदत्तसूरि रख दिया। इससे पाया जाता है कि इन उत्सूत्र वादियों के उस समय सिवाय चित्तौड़ के कोई स्थान ही नहीं होगा।
देवभद्र भी एक पक्षपात का बादशाह था, कारण यदि उसको वल्लभ का पट्टधर ही बनाना था तो वल्लभ के पास शेखर नाम का साधु रहता था और वह वल्लभ का संभोगी भी था तब उस संभोगी साधु को छोड़ विसंभोगी सोमचंद्र को वल्लभ का पट्टधर बनाया यह तो उसने जान बूझ कर उन दोनों को आपस में लड़ाने का ही काम किया था। शायद इसका कारण यह हो कि देवभद्र और शेखर के आपस में कलह हो गया था और देवभद्र ने शेखर का गला घोंट कर निकाल दिया था। अतः देवभद्र ने द्वेष के कारण संभोगी साधु शेखर को छोड़ कर विसंभोगी सोमचन्द्र को सूरि बनाया होगा।
मुनि शेखर भी देवभद्र एवं सोमचन्द्र से कम नहीं था। उसने भी अपनी अलग पार्टी बनानी शुरु कर दी और उसमें शेखर को सफलता भी मिलती गई। कारण, जिनदत्त की खरतर प्रकृति के कारण साधु उनसे राजी नहीं पर नाराज ही रहते थे। बस मुनि शेखर को सफलता मिलने का यही विशेष कारण था। समय पाकर मुनि शेखर भी सूरि बन गया और जिनवल्लभ के 'विधिमार्ग' के दो टुकड़े हो गये। एक का आचार्य जिनदत्त तब दूसरे का आचार्य जिनशेखर ।
प्रश्न-जिनदत्त सूरि तो सं. ११६९ में आचार्य हुए तब जिनशेखरसूरि आचार्य कब हुये?
उत्तर-खरतरगच्छ की पट्टावली पृष्ठ ११ पर लिखा है कि :
संवत् १२०५ रुद्रपल्ल्यां छद्मना सूरिपदं गृहीतं जिनशेखरेण ततो रूद्दलिया गण जातः ।
अर्थात् १२०५ में जिनशेखर आचार्य हुये।
१. “अपर दिने जिनशेखरेण साधु विषये किंचित्कलहादिकं युक्तं कृतं, ततो देवभद्राचार्येण गले गृहीत्वा निष्काशित इत्यादि।"
"प्रवचन परीक्षा, पृष्ठ २५१"