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इनके अलावा साध्वी या श्राविका कोई नहीं थी। कारण, उस समय का महिला समाज अपने धर्म पर इतना दृढ़ था कि कई पुरुष वल्लभ के अनुयायी बनने पर भी उनकी औरतें धर्म से विचलित नहीं हुई पर वल्लभ ने अपने अनुयायी श्रावकों के घरों में क्लेश कुसम्प डलवा कर कुछ औरतों को अपने पक्ष में बनाकर बड़ी मुश्किल से तीन संघ बनाये, पर वल्लभ की मौजूदगी में उसके पास किसी स्त्री पुरुष ने दीक्षा नहीं ली। अतः वल्लभ के दो संघ और बाद में तीन संघ ही रहे।
जिनवल्लभ को आचार्य पद की अभिलाषा तो पहले से ही थी, फिर देवभद्र का संयोग मिल गया। पर यह समझ में नहीं आता है कि देवभद्राचार्य वल्लभ के धोखे में कैसे आ गये कि उसने वल्लभ को चित्तौड़ ले जा कर वि. सं. ११६७ में आचार्य बना दिया: वह भी अभयदेवसरि का पट्टधर । जिस अभयदेवसरि के स्वर्गवास को उस समय ३२ वर्ष हो गुजरे थे। यही कारण था कि उस समय की जनता वल्लभ को जारगर्भ के सदृश आचार्य कहा करती थी, बात भी ठीक थी कि जिस पति के देहान्त के बाद ३२ वर्षों से पुत्र जन्म ले उसको जारगर्भ न कहा जाय तो और क्या कहा जाय? यही हाल जिनवल्लभ का हुआ।
जैनसमाज की तकदीर ही अच्छी थी कि जिनवल्लभ आचार्य बनने के बाद केवल छ: मास ही जीवित रहा। यदि वह अधिक जीवित रहता तो न जाने जैनसमाज के लिये क्या क्या उजाला कर जाता !!
किसी राजाने अपनी मौजूदगी एवं अपने हाथों से अपने योग्य पुत्र को राजतिलक कर सब अधिकार सुप्रत कर दिया, पर कोई रिश्वतखोरा एक चलते फिरते इज्जतहीन को लाकर राजा बना दे तो क्या जनता उसको राजा मान लेगी? हगिज नहीं। यही हाल जिनवल्लभ का हुआ, अतः वल्लभ को अभयदेवसूरि के पट्टधर बना देने से अभयदेवसूरि का पट्टधर नहीं कहा जा सकता है। कारण, अभयदेवसूरि तो शुद्ध चन्द्रकुल की परम्परा में है और अभयदेवसूरि की सन्तान परम्परा भी अभयदेवसूरि के नाम से चलती आई है। देखियेजिनेश्वरसूरि कुर्चपुरा गच्छीय चैत्यवासी विधिमार्ग स्थापक
जिनवल्लभसूरि जिनचन्द्रसूरि
अभयदेवसूरि वर्धमानसूरि
जिनदत्तसूरि (खरतर शाखा)
जिनशेखरसूरि (रुद्रपाली शाखा)