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४. वैशाख शुक्ला १० को महावीर का केवलज्ञान कल्याणक। ५. कार्तिक कृष्णा १५ को महावीर का निर्वाण कल्याणक।
आचार्य हरिभद्रसूरि और अभयदेवसूरि जैसे धुरंधर आचार्यों के उपरोक्त लेखों से पाठक अच्छी तरह से समझ गये होंगे कि उन्होंने भगवान महावीर के पांच कल्याणक माने हैं पर जिनवल्लभ के मिथ्यात्व मोहनीय का प्रबलोदय था कि उसने तीर्थंकर गणधर और पूर्वाचार्य के वचनों को उस्थाप कर छट्ठा गर्भापहारकल्याणक की उत्सूत्र प्ररुपणा कर स्वयं और दूसरे भद्रिकों को दीर्घ संसार के पात्र बना दिये और उनके अनुयायी आज पर्यन्त इस उत्सूत्र प्ररुपणा का पक्ष कर अपने संसार की वृद्धि कर रहे हैं।
वल्लभ की उत्सूत्र प्ररुपणा से जैनसमाज में बड़ा भारी उत्पात मच गया और क्या सुविहित समाज और क्या चैत्यवासी समाज ने उत्सूत्र प्ररुपक जिनवल्लभ को संघ बाहर कर दिया। देखिये :"असंविग्न समुदायेन संविग्न समुदायः संघ बहिष्कृतः"
प्रवचन परीक्षा, पृष्ठ २४२ इस पर भी वल्लभ ने अपने हठ कदाग्रह को नहीं छोड़ा पर कहा जाता है कि
_ 'हारिया जुवारी दुणा खेले' जिनवल्लभ ने इस गर्भापहार कल्याणक के अलावा भी जिनवचनों में अनेक क्रियाओं की स्थाप उस्थाप करके अपना 'विधिमार्ग' नाम का एक नया मत स्थापन कर जैनसमाज में फूट कुसम्प के ऐसे बीज बो दिये कि जिसके फल जैनसमाज आज पर्यन्त चख ही रहा है।
__पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि यदि वल्लभ उत्सूत्र प्ररुपक नहीं होता और अभयदेवसूरि का पट्टधर होता तो उसको अभयदेवसूरि के समुदाय से अलग मत निकालने की जरुरत ही क्या थी? अतः जिनवल्लभ उत्सूत्र प्ररुपक था और उसने अभयदेवसूरि के समुदाय से अलग विधिमार्ग नाम का नया मत निकाला था।
अब तो जिनवल्लभ के दिल में केवल एक बात ही पूर्ण तौर से खटकने लगी कि इतना होने पर भी मैं आचार्य नहीं बन सका। दो तीन वर्ष तक इस बात की कोशिश में भ्रमण किया परन्तु किसी ने वल्लभ को आचार्य नहीं बनाया। कारण, एक तो वल्लभ उत्सूत्रवादी था, दूसरे श्रीसंघ ने उसको संघ बाहर भी कर दिया था, तीसरे नहीं था वल्लभ के कोई शिष्य और नहीं था कोई गुरु, चौथे वल्लभ के उत्सूत्र मत में अभी तक दो ही संघ थे, एक तो श्रमणसंघ जो एक वल्लभ, दूसरा श्रावक संघ जो चित्तौड़ के चन्द व्यक्ति जो वल्लभ को मानने वाले,