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उस्सप्पिणि ओसप्पिणीहिं वइक्वंताहिं समुप्पज्जइ"
अर्थ-निश्चय कर के ऐसा न हुआ होता और न होगा जो कि तीर्थंकर चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, अंतकुल, प्रांतकुल, तुच्छ कुल, दरिद्रकुल, कृपणकुल, भिक्षुकुल, ब्राह्मणकुल में आया आवे और आवेगा परन्तु निश्चय कर के अरिहन्त चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव उग्रकुल, भोगकुल, राजनकुल, इक्ष्वाकुकुल क्षत्रिय कुल, हरिवस कुल इनके अलावा और भी विशुद्ध जाति कुल में आया आवे और आवेंगे परन्तु यह तो एक आश्चर्यभूत अनन्तकाल से ऐसी बात होती है।
जबकि ब्राह्मणादिक कुल में तीर्थंकरों का आना अनन्तकाल से आश्चर्य बतलाया है तो उसको कल्याणक कैसे माना जाय? आगे भगवान महावीर के लिये स्वयं शास्त्रकार फरमाते हैं कि :
णामगुत्तस्स वा कम्मस्स अक्खीणस्स अवेइस्स अणिज्जिण्णस्स उदएणं।
__अर्थात् नामगोत्र कर्म को क्षीण न करने से, न वेदने से, न निर्जरा करने से, उदय में आया है यह बतलाते हैं कि महावीर ने किस भव में नीच गोत्र उपार्जन किया था।
___ मरीचिरपि तच्छ्रुत्वा हर्षोद्रेकात्रिपदी आस्फोट्य नृत्यन्निदं अवोचत् । यतः-"प्रथमो वासुदेवोऽहं, मूकायां चक्रवर्त्यहं । चरमस्तीर्थराजोऽहं, ममाहो ! उत्तमं कुलम् ॥१॥ आद्योऽहं वासुदेवानां, पिता मे चक्रवर्तिनाम् । पितामहो जिनेंद्राणां ममाहो! उत्तम कुलम् ॥ २॥ इत्थं च मदकरणेन नीचैगौत्रं बद्धवान् ।
मरीची ने मद कर के नीच गोत्र उपार्जन किया था वह उदय में आया । जिस नीच गौत्र उदय को कल्याणक मानना कितनी अनभिज्ञता की बात है, पर जिस जीव के मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का प्रबलोदय हुआ हो उसको कौन समझा सकता है? यह तो हुई शास्त्र की बात अब पूर्वाचार्यों के कथन को देखिये।
खुद वल्लभ ने कहीं पर ऐसा नहीं लिखा है कि मैं अभयदेवसूरि का पट्टधर हूँ। पर पिछले लोगोंने उसको अभयदेवसूरि के पट्टधर होने की मिथ्या कल्पना कर डाली है पर देखिये अभयदेवसूरिने आचार्य हरिभद्रसूरि कृत पंचासक पर टीका रची है, उसमें महावीर के पाच कल्याणक स्पष्टतया लिखे हैं, अतः यहा पर हरिभद्रसूरिकृत मूल पंचासक तथा उसकी टीका ज्यों की त्यों लिख देता हूं।
तेसुअ दिणेसु धण्णा, देविदाई करिति भत्तिणया । जिणजत्तादि विहाणा, कल्लाणं अप्पणो चेव ॥ ३ ॥