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पद्मप्रभसूरि
जिनचन्द्र
पद्मचन्द्र
।
जिनपति
विमलचन्द्र
धर्मघोषसूरि जिनेश्वर
अभयदेव इस खुर्शी नामा से पाठक समझ सकते हैं कि अभयदेवसूरि के साथ वल्लभ का क्या सम्बन्ध है? कुछ नहीं । खरतर मत की मर्यादा का संयोजक जैसे जिनपति एवं जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) था वैसे ही रुद्रपाली मर्यादा बांधने वाला अभयदेवसूरि था।
यह तो हुई जिनवल्लभसूरि के उत्सूत्र से 'विधिमार्ग' मतोत्पत्ति की बात । आगे चल कर इस विधिमार्ग का नाम खरतर किस प्रकार हुआ वह बतलाया जायेगा, जिसको पाठक खूब ध्यान लगाकर पढ़ें।
देवभद्राचार्य ने संघ से खिलाफ हो श्री संघ से बहिष्कृत हुए वल्लभ को आचार्य बना कर श्री संघ में एक फूट के वृक्ष का बीज बो दिया था और उसको फला फूला देखने की बड़ी बड़ी आशाओं के पुल बांध रहा था, पर भाग्यवशात् छ: मास में ही वल्लभसूरि का देहान्त हो जाने से देवभद्र की सब की सब आशायें मिट्टी में मिल गई। यदि देवभद्र इतने से ही संतोष कर लेता तो वह फूट रुपी वृक्ष वहीं नष्ट हो जाता, पर देवभद्र भी एक हठीला पुरुष था कि अपने हाथों से लगाया हुआ वृक्ष अपनी मौजूदगी में ही नष्ट कैसे हो जाय ? देवभद्र ने वल्लभ के पट्टधर बनाने के लिये बहुत कोशिश की परन्तु ऐसे काले कर्म किस के थे कि उन उत्सूत्र प्ररुपक एवं श्रीसंघ से बहिष्कृत जिनवल्लभ का पट्टधर बने? दूसरे जिनवल्लभ के न था साधु, न थी साध्वी फिर किस जायदाद पर उसका पट्टधर बने?
कुदरत का यह एक नियम है कि जैसे को तैसा मिल ही जाता है। इस नियमानुसार देवभद्राचार्य को एक सोमचन्द्र नामक मुनि मिल गया। सोमचन्द्र ने वि. सं. ११४१ में धर्मदेवोपाध्याय के पास दीक्षा ली थी। आपकी प्रकृति उग्र एवं खरतर थी। आप पदवी के बड़े ही पिपासु थे पर पदवी के योग्य एक भी गुण आपने सम्पादित नहीं किया था। यही कारण है कि करीबन २८ वर्षों से कोशिश करने पर भी आपको किसी ने एक छोटी सी पदवी भी नहीं दी। इससे पाठक समझ सकते हैं कि साधु सोमचन्द्र के अन्दर कितनी योग्यता थी? फिर भी सोमचन्द्र हताश न होकर पदवी के लिये कोशिश करता ही रहा । ठीक उस समय देवभद्र की भेंट सोमचन्द्र से हुई। आपस में वार्तालाप अर्थात् वचनबन्धी हो गई।