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प्रान्ते
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२. वि. सं. ११३९ वर्षे श्री गुणचन्द्रगणि विनिर्मित प्राकृत वीर चरित्र प्रशस्ति
भवजलोहिवीइसंभंतभवियसंताणतारणसमत्थो । बोहित्थोव्व महत्थो सिरिजिणेसरो पढमो ॥ ५१ ॥ गुरुसीओ धवलाओ सुविहिया' साहुसंतती जाया । हिमवंताओ गंगुव्व निग्गया सयलजणपुज्जा ॥ ५२ ॥
षट् स्थानक प्रकरणम्, पृष्ठ १ सं. ११३२, ११४१, ११६९, १२११ वर्षेषु क्रमश: जन्म दीक्षा सूरिपदस्वर्गभाज: श्री जिनदत्त सूरयः गणधर सार्द्धशतके -
तेसिं पयपउमसेवारसिओ भमरुव्व सव्वभमरहिओ । ससमयपरसमयपयत्थसत्थवित्थारणसमत्थो ॥ ६४ ॥ अणहिल्लवाडए नाडइव्व दंसियसुपत्त संदोहे | पउरपए बहुकविदूसगे य सन्नायगाणुगए ॥ ६५ ॥ सढियदुल्लहराए सरसइअंकोव सोहिए सुइए । मज्झो-रायसहं पविसिऊण लोयागमाणुमयं ॥ ६६ ॥ नामायरिहिं समं करियं विचारं वियाररहिएहिं । वसइहिं निवासो साहूणं ठविओ ठाविओ अप्पा ॥ ६७ ॥
इस लेख में वसतिवास का जिक्र है पर शास्त्रार्थ एवं खरतर की गन्ध तक भी नहीं है
१. खरतरों ने सुविहित शब्द का अर्थ फुटनोट में खरतर किया है, यह एक भद्रिक जनता को धोखा देने का एक जाल रचा है । क्योंकि सुविहित शब्द मात्र से ही खरतर कहा जाय तो प्रत्येक गच्छ में सुविहित आचार्य हुए हैं तथा गणधर सौधर्म और आपकी सन्तान भी सुविहित ही थे उनको भी खरतर कहना चाहिये, फिर एक जिनेश्वरसूरि को ही खरतर क्यों कहा जाय ?
२. दूसरे खरतरों ने 'वसतिवास' शब्द के साथ भी खरतर शब्द को जोड़ दिया है, यह भी धोखे की ही बात है । यदि वसतिवास को ही खरतर कहा जाय तो भगवान भद्रबाहु को भी खरतर कहना चाहिये । कारण सबसे पहले वसतिवास का उल्लेख उन्होंने ही किया था । खरतरों ! अब जमाना ऐसा नहीं है कि तुम इस प्रकार जनता को भ्रम में डाल सको । क्या सैंकडों वर्षों में भी तुमको एक दो लेखक ऐसे नहीं मिले कि एक राजा की ओर से मिले हुए खरतर बिरुद को स्पष्ट शब्दों में लिख सकें ? कि आपको इस प्रकार माया कपटाई एवं प्रपंच जाल रचना पड़ा है ?
(लेखक)