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कवि पल्ह का लेख-पहले भाग में तथा जिनपतिसूरि का लेख इसी भाग में मुद्रित हो चुका है।
सं. १२८५ श्री पूर्णभद्रगणि विनिर्मिते धन्यशालिभद्रचरित्रप्रान्तेश्रीमद्गुर्जरभूमिभूषणमणौ श्रीपत्तने पत्तने । श्रीमदुर्लभराजराज पुरतो यश्चैत्यवासिद्विपान् ॥ निर्लोड्यागमहेतु युक्तिनरवरैर्वासं गृहस्थालये । साधूनां समतिष्ठपन्मुनि मृगाधीशोऽप्रधृष्यः परैः ॥ १ ॥ सूरिः स चांद्रकुलमानसराजहंसः, श्रीमज्जिनेश्वर इति प्रथितः पृथिव्यां । जज्ञे लसच्चरणरागभृदिद्ध, शुद्धपक्षद्वयं शुभगतिं सुतरां दधानः ॥ २ ॥ सं. १२९३ वर्षे द्वादशकुलविवरणे उपाध्यायः जिनपालः - श्रीमच्चांद्रकुलांबरैकतरणेः श्रीवर्धमानप्रभोः, शिष्यः सूरिजिनेश्वरो मतिवचः प्रागल्भ्यवाचस्पतिः । आसीहर्लभराजराजसदसि प्रख्यापितागारवदवेश्मावस्थितिरागमज्ञ सुमुनिव्रातस्य शुद्धात्मनः ॥१॥ सं. १३१७ वर्षे श्रावकधर्म प्रकरण वृत्तिप्रान्ते लक्ष्मीतिलकोपाध्यायःप्रादोषानपहस्त्य कृग्रहकृतान् सिद्धान्तदृष्ट्यावसन्यध्वानंशुभसिद्धिलग्नमभितः प्रामाणिकत्वं नयन् । स्थाने दुर्लभराजशक्रगुरुतां प्रापत्सुचन्द्रान्वयोत्तंसः सूरिजिनेश्वरः समभवत् त्रैविध्यवद्यक्रमः ॥ १ ॥
षट् स्थानक प्रकरण, पृष्ठ २ खरतरों की ओर से उपरोक्त प्रमाण, वि. सं. ११२० से वि. सं. १३१७ तक के प्रमाणों में खरतर शब्द की गन्ध तक भी नहीं है। हा जिनेश्वरसूरि का पाटण जाना और पिछले लोगों का शास्त्रार्थ की कल्पना करना हम उपर लिख आये हैं, फिर समझ में नहीं आता है कि खरतर इन प्रमाणों से क्या सिद्ध करना चाहते हैं ? इन प्रमाणों से तो उल्टा यह सिद्ध होता है कि वि. सं. १३१७ तक तो किसी भी खरतरों की यह मान्यता नहीं थी कि जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में खरतर बिरुद मिला था।
खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनदत्तसूरि की खर (कठोर) प्रकृति के कारण हुइ थी; जिस खरतर शब्द को वे अपना अपमान समझते थे, पर चौदहवीं शताब्दी