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में वह अपमानित खरतर शब्द गच्छ के रुप में परिणित हो गया। जैसे ओसवालों में चंडालिया बलाई ढेढ़िया वगैरह जातियां हैं। जब इनके यह नाम पड़े थे तब तो वे नाराज होते थे पर बाद दिन निकलने से वे अपने हाथों से पूर्वोक्त नाम लिखने लग गये। यही हाल खरतरों का हुआ है जो खरतरशब्द अपमान के रुप में समझा जाता था, दिन निकलने से खरतर लोग अपने हाथों से लिखने लग गये। आगे चल कर एक प्रमाण और देखिये
जिनवल्लभसूरि ने भगवान महावीर का गर्भापहार नामक छट्ठा कल्याणक रुपी उत्सूत्र प्ररुपणा करके अपना 'विधिमार्ग' नाम का नया मत निकाला। आपके देहान्त के बाद इस नूतन मत की भी दो शाखा हो गई। एक जिनदत्तसूरि की खरतर शाखा और दूसरी जिनेश्वरसूरि की रुद्रपाली शाखा। अगर जिनेश्वरसूरि को खरतर बिरुद मिला होता तो उन दोनों शाखाओं को खरतरशब्द के लिये एक सरीखा मान होता, जैसे तपागच्छ में विजय और सागर शाखा है पर तपागच्छ के लिये दोनों शाखाओं को एकसा माना है परन्तु रुद्रपाली शाखा वाले खरतर नाम लेने में भी पाप समझते थे। कारण, खरतरशब्द की उत्पत्ति हुई थी जिनदत्तसूरि से, तब रुद्रपाली और खरतरों की खूब कटाकटी चलती थी इत्यादि।
देखिये रुद्रपाली मत में विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में एक जयानन्दसूरि हुये जिन्होंने आचारदिनकर नामक ग्रन्थ पर टीका रची है, जिसमें क्या लिखते
श्रीमज्जिनेश्वरः सूरिजिनेश्वरमतं ततः । शरद्राकाशशिस्पष्ट-समुद्रसदृशं व्यधात् ॥ १२ ॥ नवाङ्गवृत्तिकृत् पट्टेऽभयदेवप्रभुर्गुरोः । तस्य स्तम्भनकाधीश-माविश्चक्रे समं गुणैः ॥ १३ ॥ श्राद्ध-प्रबोधप्रवण-स्तत् पदे जिनवल्लभः । सूरिर्वल्लभतां भेजे, त्रिदशानां नृणामपि ॥ १४ ॥ ततः श्रीरुद्रपल्लीय-गच्छ संज्ञा लसद्यशाः । नृपशेखरतां भेजे, सूरीन्द्रो जिनेश्वरः ॥ १५ ॥
विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में खरतर शब्द खूब प्रचलित हो चुका था । यदि जिनेश्वरसूरि के खरतर शब्द की उत्पत्ति होती तो यह जयानन्दसूरि जिनेश्वर के साथ खरतर बिरुद को लिखे बिना कभी नहीं रहता ।
उपरोक्त खरतर मत के प्रमाणों से इतना तो स्पष्ट सिद्ध हो चुका है कि खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनेश्वरसूरि से नहीं, पर उनके बाद १२५ वर्ष के करीबन