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की व्यवस्था भी करता था, यह कार्य जैनसाधुओं के आचार से विरुद्ध था पर उस समय एक सर्वदेवसूरि नामक सुविहिताचार्य का वहां शुभागमन हुआ और उन्होंने देवचन्द्रोपाध्याय को हितबोध देकर उग्र विहारी बनाया इत्यादि। इस घटना का समय विक्रम की दूसरी शताब्दी के आस-पास का कहा जाता है।
चैत्यवास में शिथिलता के लिये पहला उदाहरण देवचन्द्रोपाध्याय का ही मिलता है पर उस समय सुविहितों का शासन सर्वत्र विद्यमान था कि वे कहीं पर थोड़ी बहुत शिथिलता देखते तो उनको जड़ मूल से उखेड़ देते थे। अतः उस समय को सुविहितयुग ही कहा जा सकता है।
कई ग्रन्थों में यह भी लिखा मिलता है कि वीर सं. ८८२ में चैत्यवास शुरु हुआ पर वास्तव में यह समय चैत्यवास शुरुआत का नहीं पर चैत्यवास में विकार का समय है। अतः चैत्यवासियों में शिथिलाचार का प्रवेश विक्रम की पांचवीं शताब्दी के आसपास के समय में हुआ था पर यह नहीं समझना चाहिये कि उस समय के सब चैत्यवासी शिथिलाचारी हो गये थे। क्योंकि उस समय भी बहुत चैत्यवासी आचार्य सुविहित एवं अच्छे उग्र विहारी थे और उन्हीं के लिखे हुये ग्रन्थ और पुस्तकारुढ़ किये हुए आगम आज भी प्रमाणिक माने जाते हैं।
किसी भी समाज में साधुत्व की अपेक्षा सदा काल एक से साधु नहीं रहते हैं अर्थात् सामान्य विशेष रहा ही करते हैं, जिसमें भी चैत्यवासियों का समय तो बड़ा ही विकट समय था, क्योंकि उस समय कई बार निरंतर कई वर्षों तक भयंकर दुष्काल का पड़ना तथा जैनधर्म पर विधमियों के संगठित आक्रमण का होना और उनके सामने खड़े कदम डट कर रहना इत्यादि उन आपत्ति काल में कई कई साधुओं में कुछ आचार शिथिलता आ भी गई हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं
सिद्धक्षेत्रे पिपासुः श्रीवारणस्याः समागमत् ॥ बहुश्रुतपरिवारो, विश्रान्तस्तत्र वासरान् । कांश्चित प्रबोध्य तं, चैत्यव्यवहारममोचयत् ॥ स पारमार्थिकं तीव्र, धत्ते द्वादशधा तपः । उपाध्यायस्ततः सूरिपदे पूज्यैः प्रतिष्ठितः ॥
"प्रभावक चारित्र, मानदेव प्रबन्ध, पृष्ठ १९१" भावार्थ-अज समयमा सप्तशती देश मां कोरंटक नामनुं नगर हतुं अने त्यां महावीरनुं मंदिर हतुं जेनो कारभार उपाध्याय देवचन्द्रना अधिकारिमां हतो, तेज समये सर्वदेवसूरि
मना आचार्य विहार करता एक वार कोरंटक तरफ गया अने उपाध्याय देवचन्द्रने चैत्यनो वहीवट छोड़ावीने आचार्य पद आपी देवसूरि बनाव्या, तेज देवसूरि वृद्धदेवसूरि ना नामथी प्रसिद्ध थया इत्यादि।
"पं. मुनि श्री कल्याणविजयजी महाराज"