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के घरों में घरदेरासर थे और वे सब उन घरों में ही रहते थे। अतः चैत्यों में साधु ठहरें तो कोई हर्जा नहीं था तथा सम्राट सम्प्रति ने मेदिनी मंदिरों से मंडित की थी। उन्होंने भी चैत्य के समीप एवं चैत्य के अन्दर ऐसे स्थान बना दिये कि जहाँ साधु ठहर सकें और उन स्थानों का नाम उपाश्रय रक्खा था वह भी यही सूचित करते हैं कि वे स्थान चैत्य के समीप थे।
जब तक चैत्यवासी साधुओं का आचार-विचार ठीक जिनाज्ञानुसार रहा वहाँ तक तो अर्थात् आचार्यवज्रस्वामि एवं स्कन्दिलाचार्य के समय तक तो प्रायः किसी ने भी चैत्यवास के विषय विरोध का एक शब्द भी उच्चारण नहीं किया था, अतः चैत्यवास सकल श्रीसंघ सम्मत था।
हां, दुष्काल की भयंकरता ने जैनश्रमणों पर अपना प्रभाव डाला और उस विकट समय में जैन साधुओं में व्यक्तिगत कुछ शिथिलता ने प्रवेश किया भी हो तो यह असम्भव नहीं है और इस विषय का एक प्रमाण प्रभाविक चरित्र में मिलता है कि कोरंटपुर के महावीर मंदिर में एक देवचन्द्रोपाध्याय' रहता था और वह चैत्य
आज भी किसीको छोटी बड़ी दीक्षा देनी हो तो चैत्य में ही दी जाती है। उपधान की माला तथा श्री संघ माला की क्रिया चैत्य में ही कराई जाती हैं।
हाँ, जब चैत्यवास में विकृति हो गई, गृहस्थों के करने योग्य कार्य अर्थात् चैत्य की व्यवस्था वे चैत्यवासी साधु स्वयं करने लग गये इस हालत में संघ का विरोध होना स्वाभाविक ही था। चैत्यवासियों को चैत्य से हटाने के बाद भविष्य का विचार कर श्रीसंघ ने यह नियम बना लिया कि अब साधुओं को चैत्य में नहीं ठहरना चाहिये। अतः श्रीसंघ की आज्ञा का पालन करते हुए आज कोई भी साधु मन्दिर में नहीं ठहरते हैं । यदि कोई अज्ञान साधु चैत्य में ठहर भी जाय तो श्रीसंघ अपना कर्तव्य समझ कर उसको फौरन चैत्य से निकाल दें। अस्ति सप्तशतीदेशो, निवेशो धर्मकर्मणाम् । यद्दानेशभिया भेजुस्ते, राजशरणं गजाः ॥ तत्र कोरंटक नाम पुरमस्त्युन्नताश्रयम्। द्विजिह्वविमुखा यत्र, विनतानन्दना जनाः ॥ तत्राऽस्ति श्रीमहावीरचैत्यं श्वैत्यं दधद् दृढ़म् । कैलासशैलवद्भाति, सर्वाश्रयतयाऽनया ॥ उपाध्यायोऽस्ति तत्र श्रीदेवचन्द्र इति श्रुतः । विद्वद्वन्दशिरोरत्न, तमस्ततिहारो जने ॥ आरण्यकतपस्यायां, नमस्यायां जगत्यपि । सक्तः शक्तान्तरंगाऽरि-विजये भवतीरभूः ॥ सर्वदेवप्रभु, सर्वदैव सद्ध्यानसिद्धिभृत् ।