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है । फिर भी उस समय चैत्यवासियों का प्रभाव कम नहीं था । सकल समाज उनको पूज्य भाव से मानता था । राजा महाराज उनके परमोपासक थे । हजारों लाखों जैनेतरों को उन्होंने प्रतिबोध दे कर नये जैन बनाये थे, अनेक विषयों पर सैकड़ों ग्रन्थों का निर्माण किया था । जैनधर्म के स्तम्भ रुप अनेक मंदिरमूर्तियों की प्रतिष्ठायें भी करवाई थीं। अगर यह कह दिया जाय कि चैत्यवासियोंने जैनधर्म को उस विकट परिस्थिति में भी जीवित रक्खा तो भी अतिशयोक्ति न होगी ।
चैत्यवासियों के समय की एक यह विशेषता थी कि उनका संगठन बल बड़ा ही जबर्दस्त था। उस समय कोई भी व्यक्ति स्वच्छन्दतापूर्वक कोई कार्य एवं प्ररुपणा नहीं कर सकता था । एवं चैत्यवासियों की सत्ता में कोई व्यक्ति उत्सूत्र प्ररुपणा कर अलग मत नहीं निकाल सकता था तथा किसी ने उत्सूत्र प्ररूपणा की तो उसको फौरन संघ बाहर भी कर दिया जाता था ।
आपका
चैत्यवासियों के लिये सबसे पहले पुकार हरिभद्रसूरि ने की थी, समय जैनपट्टावलियों के आधार से विक्रम की छठी शताब्दी का कहा जाता है और उनकी पुकार आचारशिथिलता की थी, न कि चैत्यवास की। क्योंकि हरिभद्रसूरि स्वयं चैत्यवासी थे । इतना ही क्यों पर आपने समरादित्य की कथा में यहां तक लिखा है कि साध्वीयों के उपाश्रय में जिनप्रतिमायें थीं और उस चैत्य में रही हुई साध्वीयों को केवलज्ञान भी हो गया था । अतः हरिभद्रसूरि के मत से चैत्यवास बुरा नहीं था पर चैत्यवास में जो विकार हुआ था वही बुरा था और उनकी पुकार भी उस विकार के लिये ही थी ।
चैत्यवासियों के लिये दूसरी पुकार वर्धमानसूरि की थी। आपका समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी का था, आपकी यह पुकार स्वाभाविक ही थी, क्योंकि वर्धमानसूरि स्वयं चौरासी चैत्य के अधिपति एवं चैत्यवासी थे और उन्होंने चैत्यवास को छोड़ दिया तो वे चैत्यवासियों के लिये पुकार करें इसमें आश्चर्य ही क्या था ? वर्धमानसूरि ने जिनेश्वर और बुद्धिसागर नामक दो ब्राह्मणों को दीक्षा दी और उनको पाटण भेजे । उन्होंने वहां जाकर वसतिमार्ग नाम का एक नया पन्थ निकाला। इस वसतिमार्ग मत के जन्म के पूर्व प्रायः सब चैत्यवासी ही थे ।
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तीसरा नम्बर है जिनवल्लभसूरि का, आपका समय विक्रम की बारहवीं शताब्दी का था और आप भी पहले चैत्यवासी ही थे । चैत्यवास छोड़कर इन्होंने भी चैत्यवासियों की खूब ही निन्दा की । प्रमाण के लिये आपका बनाया 'संघपट्टक' नामक ग्रन्थ विद्यमान है। जिन चैत्यवासियों का बहुमान कर आचार्य अभयदेवसूरि ने अपनी टीकाओं का संशोधन करवाया था उन्हीं चैत्यवासियों की मानी हुई