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आज तीन बजे पडिलेहन किया और पूज्यश्री के पडिलेहन की याद आई । पडिलेहन पूरा कर के यह पत्र मैं लिखने बैठा हूं।
मन शून्य है, मकान भी शून्य है। दो दिन के सभी अंतिम दृश्य आंखों के समक्ष फिल्म की तरह दौड़ रहे हैं । केशवणा से प्रारंभ हुइ अंतिम विदाय-यात्रा, कि जो शाम को ६.०० बजे शुरु हुई, बस... अब उस पार्थिव देह के भी दर्शन नहीं होंगे । दो दिन और रात उस पवित्र देह का दर्शन भी मन को कुछ हरा-भरा रखता था : मानो साक्षात् गुरुदेव सामने ही बैठे हैं ।
वही करुणा बरसानेवाली दोनों खुली आंखे ! वही प्रसन्न वदन ! वही स्मितपूर्ण तेजोमय मुख-मुद्रा ! मानो अभी बोलेंगे... अभी कुछ कहेंगे !
- वह पार्थिव देह नजर से दूर हुआ और मन हताश हो गया, आंखें रो उठी, हृदय हताशा से हत-प्रहत हो गया । क्या लिखू ? कितना लिखू ?
मुझे जैसे वेदना है, वैसे आप सब को, सभी गुरुभक्तों को भी है।
गये गुरुदेव, सदा के लिए गये ।
पूज्यश्री की यादें हमारे पास है। उसके सहारे जीने का बल प्राप्त करना है ।
पूज्यश्री की ऊंचाई को देख सकें, ऐसी दृष्टि नहीं है। पूज्यश्री के गुणों की अगाधता को नाप सके ऐसी बुद्धि-शक्ति नहीं है। बस... पूज्यश्री की जो प्रेरणा मिली, उसे जीवन में उतारें, निर्मल मन और निर्मल जीवन बनायें - यही करना है, जो गुरुदेव ने कहा है । बस... रुकता हूं।
- पं. कल्पतरूविजय मांडवला (राज.) माघ शु. ६, वि.सं. २०५८, १८-२-२००२
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