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कारण
सूचीपत्र
कारण कार्य के प्रति नियामक हेतुको कारण कहते हैं। वह दो प्रकारका है-अन्तरंग व बहिरंग। अन्तरंगको उपादान और बहिरंगको निमित्त कहते हैं। प्रत्येक कार्य इन दोनोंसे अवश्य अनुगृहीत होता है। साधारण, असाधारण, उदासीन, प्रेरक आदिके भेदसे निमित्त अनेक प्रकारका है। यद्यपि शुद्ध द्रव्योंकी एक समयस्थायी शुद्धपर्यायों में केवल कालद्रव्य ही साधारण निमित्त होता है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य निमित्तोंका विश्व में कोई स्थान ही नहीं है। सभी अशुद्ध व संयोगी द्रव्योंकी चिर कालस्थायी जितनी भी चिदात्मक या अचिदात्मक पर्याय दृष्ट हो रही हैं, वे सभी संयोगी होनेके कारण साधारण निमित्त (काल व धर्म द्रव्य ) के अतिरिक्त अन्य बाह्य असाधारण सहकारी या प्रेरक निमित्तोंके द्वारा भी यथा योग्य रूपमें अवश्य अनुगृहीत हो रही हैं। फिर भी उपादानकी शक्ति ही सर्वतः प्रधान होती है क्योंकि उसके अभावमें निमित्त किसीके साथ जबरदस्ती नहीं कर सकता। यद्यपि कार्यकी उत्पत्तिमै उपरोक्त प्रकार निमित्त व उपादान दोनों का ही समान स्थान है, पर निर्विकल्पताके साधकको मात्र परमार्थका आश्रय होनेसे निमित्त इतना गौण हो जाता है, मानो वह है ही नहीं। संयोगी सर्व कार्योंपर-से दृष्टि हट जानेके कारण और मौलिक पदार्थपर ही लक्ष्य स्थिर करने में उद्यत होनेके कारण उसे केवल उपादान ही दिखाई देता है निमित्त नहीं और उसका स्वाभाविक शुद्ध परिणमन ही दिखाई देता है, संयोगी अशुद्ध परिणमन नहीं । ऐसा नहीं होता कि केवल उपादान पर दृष्टिको स्थिर करके भी वह जगतके व्यावहारिक कार्योंको देखता या तत्सम्बन्धी विकल्प करता रहे । यद्यपि पूर्वमद्ध कर्मोक निमिससे जीवके परिणाम और उन परिणामोंके निमित्तसे नवीन कोका बन्ध, ऐसी अटूट शृखला अनादिसे चली आ रही है, तदपि सत्य पुरुषार्थ द्वारा साधक इस शृखलाको तोड़कर मुक्ति लाभ कर सकता है, क्योंकि उसके प्रभाव से सत्ता स्थित कोंमें महाद् अन्तर पड़ जाता है।
| ३. निमित्त कारण कार्य निर्देश
भिन्न गुणों या द्रव्योंमें भी कारणकार्य भाव होता है। उचित ही द्रव्यको कारण कहा जाता है जिस किसीको नहीं। कार्यानुसरण निरपेक्ष बाब वस्तुमात्रको कारण नहीं कह सकते। कार्यानुसरण सापेक्ष ही बारा वस्तुको कारणपना प्राप्त है। कार्यपर-से कारणका अनुमान किया जाता है
-दे० अनुमान/२॥ अनेक कारणों में से प्रधानका ही ग्रहण करना न्याय है। षट् द्रव्योंमें कारण अकारण विभाग -दे० द्रव्य/३ ।
कारण कार्य सम्बन्धी नियम
I | कारण सामान्य निर्देश १. कारणके भेद व लक्षण
कारण सामान्यका लक्षण । कारणके अन्तरंग बहिरंग व प्रात्मभूत अनात्मभूत रूप मेद । उपरोक्त मेदोंके लक्षण। सहकारी व प्रेरक आदि निमित्तोंके लक्षण
__ --दे०निमित्त/१। करणका लक्षण तथा करण व कारणमें अन्तर ।
-दे करण/१। उपादान कारण कार्य निर्देश
कारणके बिना कार्य नहीं होता
-दे० कारण/IJI/४। कारण सदृश ही कार्य होता है। कारणभेदसे कार्यभेद अवश्य होता है
-दे० दान/४। कारण सदृश ही कार्य हो ऐसा नियम नही। एक कारणसे सभी कार्य नही हो सकते । पर एक कारणसे अनेक कार्य अवश्य हो सकते हैं। एक कार्यको अनेकों कारण चाहिए। | एक ही प्रकारका कार्य विभिन्न कारणोंसे होना सम्भव है। कारण व कार्य पूर्वोत्तरकालवर्ती होते हैं। दोनों कथंचित् समकालवती भी होते हैं
-दे० कारण/IV/२/५ । कारण व कार्य में न्याप्ति अवश्य होती है। कारण कार्यका उत्पादक हो ही ऐसा नियम नहीं। कारण कार्यका उत्पादक न ही हो ऐसा भी नियम नही। कारणकी निवृत्तिसे कार्य की भी निवृत्ति हो जाये
ऐसा नियम नही। १२ कदाचित् निमित्तसे विपरीत भी कार्य होना सम्भव
कई
निश्चयसे कारण व कार्य में भमेद है। द्रव्यका स्वभाव कारण है और पर्याय कार्य। त्रिकाली द्रव्य कारण है और पर्याय कार्य। पूर्ववर्ती पर्याययुक्त द्रव्य कारण है और उत्तरवर्ती पर्याययुक्त द्रव्य कार्य। वर्तमान पर्याय ही कारण है और वही कार्य। | कारण कार्य में कथंचित् मेदाभेद ।
II | उपादान कारणको मुख्यता गौणता
उपादानकी कथंचित् स्वतन्त्रता
| उपादान कारण कार्य में कथचित् भेदाभेद
--दे० कारण/I/२।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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