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.." समीक्षा
"जिस प्रकार कुगुरु कुदेव कुशास्त्र की श्रद्धा और सुदेवादिक की श्रद्धा दोनों मिथ्यात्व हैं तथापि कुदेवादिक को श्रद्धा में तीन मिथ्यात्व है.और सुदेवादिक की श्रद्धा में मन्द" श्रा०प०६ वर्ष ४
यद्यपि देवशास्त्र गुरु पर हैं, अनात्मभूत हैं तो भी इनके 'द्वारा आत्मानुभूति परमार्थ की सिद्धि होती है जैसा कि समय प्राभूत में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी और टीकाकार अमृतचन्द्र सूरी ने कहा है इस बात को हम ऊपर उद्धृत कर चुके हैं तो भी प्रयोजन बश उसका भावार्थ उद्धृत कर देते हैं। - "जो शास्त्र ज्ञान करि अभेद रूप ज्ञायक मात्र शुद्ध आत्मा जाने सो अत केवली है यह तो परमार्थ है। बहुरि जो. सक शास्त्रज्ञानकू जाने सो सकेवली है यह ज्ञान है सो ही प्रात्मा है । सो ज्ञानकू जान्या सो पात्मा ही को जान्या सो ही परमार्थ है, ऐसे ज्ञान ज्ञानी के भेद करता जो व्यवहार तिसने भी परमार्थ ही कहा अन्य तो किळू न कहा । बहुरि ऐसा भी है जो परमार्थ का विषय तो कथंचित् वचन गोचर नहीं भी है ताते व्यवहार नय ही प्रगट रूप आत्मा कू कहे है ऐसे जानना"
इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि गुणगुणी में भेद कर .कथन करने वाली व्यवहार नय भी परमार्थभूत है क्योंकि उसने परमार्थ ही को कहा है इसके अतिरिक्त और कुछ भी न कहा तथा परमार्थ का विषय वचन अगोचर अनुभव गम्य है उसको वचन द्वारे व्यवहार नय ही प्रगट रूप आत्म स्वरूप को बतलाती हैं तथा आत्म स्वरूपकी प्राप्ति किस तरह से होसकती है उसका उपाय भी बतलाती हैं इसलिये व्यवहार नय परमार्थ भूत भी है । पाषाणादिक में उपचार से जिनराज की कल्पना करना यह असद्ध त व्यवहार नथ का विषय है अतः असद्भत व्यवहार
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