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जैन तत्त्व मोसंसा की
उसको उस हार के पहनने का आनन्द आसकता है उसी प्रकार ज्ञानदर्शन चारित्रात्मक अनन्तगुणोंका शुद्ध प्रखंड पिण्ड एक ज्ञायक स्वभाव रूप आत्मा का भेद रहित अनुभव करने में जो
आनन्द आता है वह प्रानन्द गुण गुणीके भेदका अनुभव करने में नही आता क्योंकि वस्तुस्वरूप वैसा नहीं है जिस प्रकार अलग अलम मोती हार नहीं उसी प्रकार अलग अलग गुण आत्मा का स्वरूप नहीं है । इस लिये गुण गुणी का भेद करना व्यवहारनय अभूतार्थ है किन्तु व्यवहार नय भूठी कल्पना कर कुछ भी नहीं कहती व्यवहार नय जो कहती है वह वस्तु के एक देश को सत्यार्थ ही कहती है। यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो परमार्थका लोप ही हो जावेगा। जिनेन्द्र भगवानका प्रतिविम्ब है वह साक्षात जिनेन्द्र नहीं हैं तो भी हम स्थापना निक्षेपसे उसको साक्षात जिनेन्द्र मानकर ही दर्शन- पूजनादिके द्वारा हम सब परमार्थकी सिद्धि करते हैं यह वात असत्य नहीं है । "जिनप्रतिमा जिनसारखी कही जिनागम माहिए ऐसा जैनागमका वाक्य है। तथा जिन प्रतिमा का अवलोकन आदि सम्यक्त्व की प्राप्ति में मुख्य हेतु बतलाया है जो सारभूत परमार्थ है। किन्तु पंडित जी की दृष्टि में तो ये सब अपरमार्थ भूत ही हैं जब कि आप गुण गुणी के भेद करने वाली सद्भूत व्यवहार नय को भी अपरमार्थभूत बता रहे हैं तब असमत व्यवहार नय द्वारा पाण्ादिक में उपचार से जिनेन्द्र की कल्पना करना तो अपर मार्थभूत है ही। फिर इसके द्वारा पंडित जी की दृष्टि में परमार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती अतः इनसे परमार्थ की सिद्धि होती है ऐसा मानकर उनकी पूजादि करना भी सब अपरमार्थभूत ही है जैसा कि कानजी का कहना है।
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