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समीक्षा
२१
सिद्धि मानने वाले परमार्थ से दूर नहीं हैं किंतु व्यवहार से परमार्थ
की सिद्धि न माननेवाले ही परमार्थ से दूर रहते हैं इसमें संदेह है क्योंकि उनकी जैनागम पर श्रद्धा नहीं है। और न वे जैनागम को को हो है बैनागम जो में व्यवहारको अभूतार्थ है यह fadarक्ष है इसबात को लोग समझते नहीं किन्तु व्यवहार को सवथा हेय मानकर व्यबहार को छोड हैं और स्वच्छंद होकर परमार्थ से दूर रह जाते है। द्यपि व्यवहार नय परमार्थ का कहनहारा ही है इसलिये उपादेय है तथापि वह अभेद शुद्ध आत्म स्वरूपमें भेद कर आत्म स्वरूप को प्रगट करती है इसलिये अभूतार्थ भी है।
"एक रूप आतम दरव ज्ञान चरण हग तीन । भेदभाव परिग्राम यो व्यवहारे सुमलीन । यद्यपि समल व्यवहारसों पर्यय शक्ति
| त िनियत नय देखिये शुद्ध निरंजन एक । एक देखिये. जामिये रमरहिये इकठोर समलविमल न विचारिये, यह सिद्धि नहीं और" । अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टिसे आत्मशुद्ध एकाकार भेड़ रूप नित्यद्रव्य है । वही व्यवहार दृष्टि से दर्शनज्ञानचारित्ररूप है इस भेदभाव से शुद्ध एक रूप आत्माका अनुभव नहीं होता अतः यह परिणामोंकी स्वच्छता सविकल्पपना है सो ही परणामों की लीना है इस मलिनताको दूर करनेसे ही एक अखड - पिण्ड शुद्धस्वरूप आत्माका अनुभव होता रहता है इसलिये आत्मा समल है विमल है दर्शनज्ञान चारित्र स्वरूप है यह विकल्प जब तक है तब तक उस शुद्धस्वरूप के अनुभवका आनन्द नहीं आता जिस प्रकार मोतियोंका हर पहरनेवाला मनुष्य मोतियों के विकल्प में रहै लच्च रखे तो उसे उस हारके पहनने का बानन्द नहीं भाता। अतः वह यदि मोतियों का विकल्प लच हटाकर उन मोतियोंका एकाकाररूप हारका ही अनुभव करें तो
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