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पूर्णता सराबोर होकर एक नये दृष्टिकोण/नवसर्जन की राह खोल देगा। तब तुम्हारे में न्युनता का अंशभी नहीं रहेगा । तुम किसी बात की कमी महसूस नहीं करोगे । यदि तुम्हारे पास बाह्य पदार्थों का अभाव होगा, फिर भी तुम न्युनता का अनुभव नहीं करोगे । ऐसी परिस्थिति में अगर तुम्हारे सामने एकाध राजा-महाराजा अथवा सकल ऋद्धि-सिद्ध से युक्त स्वयं देवेन्द्र पा जायें, तो भी तुम्हें किसी वात का गम-दुःख नहीं होगा। हाँ, तब तुम्हारे पूर्णानन्दस्वरूप का अनुमान कर वह, रवयं में ही शून्यता का अनुभव करे तो अलग बात है !
कृष्णे पक्षे परिक्षीणे, शुक्ले च समुदञ्चति ।
द्योतन्ते सकलाध्यक्षाः पूर्णानन्दविधो: कलाः ॥८॥ अर्थ : कृष्ण पक्ष के क्षय होने पर जव शुक्ल पक्ष का उदय होता है तब
पूर्णानन्द रुपी चन्द्र की कला विकसित होती है। खिलती है और
सारी सृष्टि प्रकाशमय बना देती है । विवेचन : यह शाश्वत् सत्य है कि कृष्ण पक्ष के क्षय होते ही शुक्ल पक्ष का प्रारंभ होता है, उदय होता है । फलतः चन्द्रकला दिन-ब-दिन अधिक और अधिक प्रकाशित हो, विकसित होती जाती है और सारा संसार उससे आलोकित हो उठता है । चन्द्र की पूर्णकला का दर्शन कर एक प्रकार के रोमांचकारी आनंद व अपूर्व शान्ति का अनुभव करता है।
ठीक इसी तरह जब आत्मा शुक्ल पक्ष में प्रवेश करती है, तब पूणानिन्द की कला सोलह सिंगार कर उठती है । दिन-ब-दिन उसमें परिपूर्णता पाती रहती है । फलतः जैसे-जैसे वह पूर्ण रूप से विकसित हो उठती है, वैसे-वैसे मिथ्यात्व के दुष्ट जाल का, राहु की शैतानी शक्ति का लोप होता रहता है।
काल-चक्र की दृष्टि से यहाँ 'शुक्ल पक्ष' और 'कृष्ण पक्ष' की कल्पना की गयी है और अनंत पुद्गल परावर्तकाल से संसार में भटकते जोव को कृष्ण पक्ष के चन्द्र को उपमा दी गयो है । जबकि आवागमन के फेरे लगाता, जन्म-मरण के चक्र में डबता-इतराता जीव संसार परिभ्रमण के अर्ध पुद्गल परावर्तकाल से भी कम समय बाकी रखता है, उसे शुक्ल पक्ष के चन्द्र की संज्ञा दी गयी है ।
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