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पूर्णता विवेचन : 'बाह्य धन-धान्यादि की संगत करें, उसमें परिपूर्ण बनने के लिये, पूर्णता प्राप्त करने के लिये पुरुषार्थ करें और साथ ही साथ आन्तरिक प्रात्म-गुणों से भी युक्त बनें, यह विचार अनुपयुक्त, अनुचित नहीं तो क्या है ? क्या परस्पर विरोधी दो विचारधाराएँ एक स्थान पर होना संभव है ? विभावदशा और स्वभावदशा-दोनों स्थितियों में आनन्दोपभोग करना कितना विचित्र और आश्चर्यकारक है ? एक तरफ एक सौ चार डिग्री ज्वर में उफनता हो और दूसरी ओर मिष्टान्न-स्वाद का गुदगुदाने वाला अनुभव होना जिस तरह संभव नहीं है, ठीक उसी तरह जब तक बाह्य (पौद्गलिक) सुख लूटने की क्रिया सतत शुरू हो, तृष्णा और लालसा की भूख मिटी न हो, तब तक पूर्णानन्द का अनुभव भी पूर्णतया असंभव है, असमीचीन है, साथ ही अनुचित है ।
जैसे-जैसे हमारी इन्द्रियजन्य सूखों की स्पृहा नष्ट होती जाएगी, उपभोग की भावना कम होती जाएगी, वैसे-वैसे आत्मगुरणों का आनन्द द्विगुणित होता हुआ निरन्तर बढ़ता जाएगा। मतलब, इन्द्रियजन्य सुखों की अपूर्णता ही प्रात्मगुरणों की पूर्णता का प्रमुख कारण है । बिना कारण कोई बात नहीं बनती। यदि हमें आत्मगुरगों में पूर्णानन्द का अनुभव करना हो तो अपनी तृष्णा, स्पृहा और इन्द्रियजन्य सुखों की लालसा का त्याग किये बिना कोई चारा नहीं है । मिठाई के स्वाद का मजा लूटना हो तो विषम ज्वर से मुक्ति पानी ही होगी । बीमारी के कारण मुह में एक प्रकार की जो कडवाहट आ गयी है, उसे खत्म करना ही होगा।
आत्मगुरण के पूर्णानंद का यह मूलभूत स्वभाव है कि वह इन्द्रियजन्य सुखों के साथ रह नहीं सकता । ठीक उसी प्रकार इन्द्रियजन्य सुख का भी स्वभाव है कि वह आत्म गुरण के पूर्णानंद की संगति नहीं कर सकता । न जाने यह कैसा परस्पर विरोधी स्वभाव है ?
बाह्न सुखों का परित्याग कर जब आत्मा निज गुणों के पूर्णानंद में खो जाती है, तब सष्टि दिग्मूढ बन जाती है। जिन सुखों के बिना प्राणीमात्र का जीवन अपूर्ण है, असंभव है, ऐसे सुख का त्याग कर अपूर्व आनंद में आकंठ डूबा पूर्णानंदी जीव, विश्व के लिये अद्भुत, महान् बन जाता है।
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