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पूर्णता
होने वाली नहीं है । मैं अपनी प्रात्मिक क्षमा, विनम्रता, ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि गुणों से ही पूर्ण हूँ । इन्ही गुरणों की प्राप्ति से मेरी पूर्णता है । " हमारी यही दृष्टि होनी चाहिए । यदि इसमें कोई बाधा अवरोध पैदा होते हों, तो उन्हें पूरी शक्ति से दूर करने की चेष्टा करो | जिस तरह हमारी आँख झपक जाए, फिर भी हम उसे खोलने का बारबार प्रयास करते हैं, ठीक उसी भाँति यहाँ भी सचेष्ट और जागृत रहना आवश्यक है |
परिणाम यह होगा कि स्पृहा तृष्णा के कारण उत्पन्न होने वाली वेदना, संताप और व्यथा तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं कर सकेगी । कारण कि तब तुम ज्ञान दृष्टि का महामंत्र पा जाओगे और वह महामंत्र कृतान्तकाल सदृश विषधर सर्प को भी नियंत्रित करने का रामबाण उपाय है । उसमें परम चमत्कारी शक्ति है । इसकी तुलना में भला बिच्छु के डंक के विष की क्या बिसात ?
"मैं अपने में रहे हुए गुरग-रत्नों से परिपूर्ण हूँ", यह विचारधारा ऐसी स्फोटक और अमोघ शक्ति है कि आनन- फानन में तृष्णा - अभिलाषा के मेरुपर्वत को चकनाचूर कर देगी । उसका नामोनिशान मिटा देगी । चक्रवर्तियों की तृष्णा को धूल में मिलाने वाली अपूर्व शक्तिशाली ज्ञानदृष्टि, पलक झपकते न झपकते सामान्य जनों की तृष्णा नष्ट करने की शक्ति रखती है ।
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पूर्यन्ते येन कृपणास्तदुपेक्षैव पूर्णता ।
पूर्णानन्दसुधा स्निग्धा दृष्टिरेषा मनीषिणाम् ||५||
अथ : जिससे ( धन-धान्यादि परिग्रहों से ) लोभी- लालची जीव पूर्ण होते हैं, उसकी उपेक्षा करना ही स्वाभाविक पूर्णता है । तत्त्वज्ञानियों की यही तत्त्वज्ञान के पूर्णानन्दरूप अमृत से गीली दृष्टि है ।
विवेचन : जब तुम्हारा ध्यान संसार के पौद्गलिक सुखों से विरक्त होकर आत्मा के अनन्त गुणों के कारण आनन्द अनुभव करने लगे, तभी तुम्हारे जीवन - व्यवहार में औौर-प्रचार- विचार में आमूल परिवर्तन आ जाएगा । तुम्हें एक नयी दुनिया के दर्शन होंगे ।
लेकिन इसके लिये तुम्हें अपने अन्तरात्मा के गुरणों के प्रानन्द की अनुभूति करनी होगी । इसके बिना कोई चारा नहीं । और यह तभी
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