Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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भावार्थ - यह सुनकर माकंदी पुत्रों ने माता-पिता को दूसरी बार एवं तीसरी बार भी यही कहा- हमने ग्यारह बार निर्विघ्न लवण समुद्र से यात्रा की। हमारी उत्कृष्ट इच्छा है, बारहवीं बार भी यात्रा करें।
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(७)
तए णं ते मागंदियदारए अम्मापियरो जाहे णो संचाएंति बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य आघवित्तए वा पण्णवित्तए वा ताहे अकामा चेव एयमट्ठ अणुजाणित्था ।
शब्दार्थ - आघवणाहि
आख्यापन - सामान्य रूप से कथन द्वारा, पंण्णवणाहि प्रज्ञापन- विशेष रूप से प्रतिपादन द्वारा, अणुजाणित्था - अनुज्ञा दी ।
भावार्थ - माता-पिता जब माकंदी पुत्रों को बहुत प्रकार से समझाने बुझाने के बावजूद अपने कथन के साथ सहमत नहीं कर पाए, तब न चाहते हुए भी उन्होंने समुद्री यात्रा हेतु उन्हें आज्ञा दे दी।
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तए णं ते मागंदियदारगा अम्मापिऊहिं अब्भणुण्णाया समाणा गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च जहा अरहण्णगस्स जाव लवण समुदं बहूई जोयण साई ओगाढा । तए णं तेसिं मागंदियदारगाणं अणेगाई जोयण सयाई ओगढाणं समाणाणं अणेगाई उप्पाइय सयाई पाउब्भूयाई ।
भावार्थ - माता-पिता से अनुमति प्राप्त कर माकंदी पुत्र गणिम, धरिम, मेय एवं परिच्छेद्य रूप चार प्रकार का माल असबाव जहाज में भरकर अर्हन्नक की तरह लवण समुद्र में सैकड़ों मील आगे बढ़ते रहे। यों उनके अनेक सैकड़ों योजन पार कर लेने पर उत्पाद प्रादूर्भूत हुए।
विकराल तूफान (ह)
तंजहा-अकाले गज्जियं जाव थणियसद्दे कालियवाए तत्थ समुट्ठिए ।
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