Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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माकन्दी नामक नववां अध्ययन - दो सार्थवाह पुत्रों द्वारा समुद्री यात्रा ३ RECERKEEEEEEEEEEEEEKSEEEEEEEEEEKSEEEEEEEEEEEEccccccesscreex फिर बारहवीं बार लवणसमुद्र पर से पुनः यात्रा करें। यों वार्तालाप कर उन्होंने परस्पर इस बात को स्वीकार किया। अपने माता-पिता के पास आए और उनसे बोले।
एवं खलु अम्हे अम्मयाओ! एक्कारस वारा तं चेव जाव णिययं घरं हव्वमागया, तं इच्छामो णं अम्मयाओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणा दुवालसमं लवण समुदं पोयवहणेणं ओगाहित्तए। तए णं ते मागंदियदारए अम्मापियरो एवं वयासी - इमे ते जाया! अज्जग जाव परिभाएत्तए, तं अणुहोह ताव जाया! विउले माणुस्सए इड्ढीसक्कार समुदए, किं भे सपच्चवाएणं णिरालंबणेणं लवण समुद्दोत्तारेणं? एवं खलु पुत्ता! दुवालसमी जत्ता सोवसग्गा यावि भवइ, तं मा णं तुब्भे, दुवे पुत्ता! दुवालसमंपि लवण जाव ओगाहेह, मा हु तुब्भं सरीरस्स वावत्ती भविस्सइ। ____शब्दार्थ - अज्जग - आर्यक-पिता, सपच्चवाएणं - सप्रत्यवाय-विघ्न युक्त, सोवसग्गाउपसर्ग-उपद्रवयुक्त, वावत्ती - व्यापत्तिः-विनाश। ... भावार्थ - माता-पिता! हम ग्यारह बार निर्विघ्न समुद्र की यात्रा कर यावत् अपने घर यथाशीघ्र आते रहे हैं। अब हम आपसे आज्ञा प्राप्त कर हम बारहवीं बार जहाज द्वारा लवण समुद्र पर से यात्रा करना चाहते हैं। ___माकंदी पुत्रों के माता-पिता ने उनसे इस प्रकार कहा - पुत्रो! पिता, पितामह एवं प्रपितामह से. तुम्हें विपुल संपत्ति प्राप्त है। तुम सांसारिक ऋद्धि, सत्कार और सम्मान का भोग करो। लवण समुद्र को पार करने से तुम्हें क्या प्रयोजन है, जिसमें विघ्न ही विघ्न हैं, कोई आलंबन नहीं है।
पुत्रो! यह तुम्हारी बारहवीं यात्रा उपद्रव सहित हो सकती है, ऐसी आशंका है। इसलिए तुम बारहवीं बार लवण समुद्र पर से यावत् जहाज द्वारा व्यापारार्थ यात्रा न करो, जिससे तुम्हारे शरीर को कोई कष्ट न हो।
जाते हैं।
तए णं (ते) मागंदियदारगा अम्मापियरो दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी-एवं खलु अम्हे अम्मयाओ! एक्कारस वारा लवण जाव ओगाहित्तए।
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