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प्रथम ढाल है। इन जन्मस्थानोंका भीतरी भाग करोंतके समान तीक्ष्ण, वज्रमयी एवं भयंकर है* । सब जन्मस्थानोंके मुख नीचेकी ओर हैं, जिससे नारकी उत्पन्न होनेके साथ ही नीचे बिलोंमें जाकर गिरते हैं। उन नरक-बिलोंमें कुत्ता, बिल्ली, ऊंट आदिके सड़े-गले शरीरोंकी दुर्गन्धकी अपेक्षा अनन्तगुणी अधिक दुर्गन्ध है*
और वहांकी भूमि अत्यन्त जहरीली है कि उसे छूनेमात्रसे हजारों बिच्छुओंके एक साथ काटनेसे भी अधिक वेदना होती है। नारकी जीव उत्पन्न होकर नीचे छत्तीस आयुधोंके बीच में गिरता है, और जहरीली भूमि तथा तीक्ष्ण आयुधोंकी वेदनाको नहीं सह सकने के कारण एक दम ऊपरको उछलता है। प्रथम नरकमें सात योजन और छह हजार पांचसौ धनुष प्रमाण ऊपर उछलता है। आगेके नरकोंमें उछलनेका प्रमाण उत्तरोत्तर दूना-दूना है। इस प्रकार कई बार फुटवालके समान नीचेसे ऊपर उछलनेपर जब नया नारकी अधमरासा होकर नीचे पड़ जाता है, तब पुराने नारकी उस नवीन नारकीको देखकर धमकाते और घुड़कियां देते हुए उस पर इस प्रकार टूट पड़ते हैं, जिस प्रकार क्रूर सिंह मृगके बच्चेको देखकर उसके ऊपर टूट पड़ता है । वे नारकी चक्र, घाण, मुग्दर, करोंत, भाला, मूसल, तलवार आदिसे मारनेकाटने लगते हैं। कितने ही नारकी उसे पकड़कर और पूर्वभवके
* देखो तिलोयपण्णत्ती अध्याय २ गाथा ३०२ से ३०८ । - देखो तिलोयपणणत्ती अ० २, गाथा ३१४, ३१५,
" " ३१७ से ३२६,