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छहढाला
कर क्षण में एकेन्द्रिय जीवोंमें आकर उत्पन्न हो जाता है, फिर मैं जाति और कुलका क्या मद करू ? ऐसे विचारोंके कारण सम्यग्दृष्टि जीव आठों मदोंमें से किसीभी मदको नहीं करता है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि जो गर्व से युक्त होकर अपने अहङ्कारसे अन्य धर्मात्मा जनोंका तिरस्कार या अपमान करता है, वह उस व्यक्तिका अपमान नहीं करता है, बल्कि वह
आत्मीय धर्मका ही अपमान करता है, क्योंकि धर्मात्माओं के बिना धर्म ठहर नहीं सकता । इसलिए ज्ञानी पुरुषको किसी प्रकारका अहङ्कार नहीं करना चाहिए। - अव छह अनायतन और तीन मूढ़ताओंका वर्णन करते हैं:कुगुरु कुदेव कुवृष सेवक की नहिं प्रशंस उचरै है, जिनमुनि जिनश्रुति विन कुगुरादिक तिन्हें न नमन करै है ॥१४ - अर्थ-कुगुरु, कुदेव, कुधर्म, कुगुरुसेवक, कुदेव सेवक और कुधर्म सेवक; इन छहोंकी स्तुति प्रशंसा आदि करने से छह अनायतन नामक दोष उत्पन्न होते हैं, इसलिए सम्यग्दृष्टि पुरुष इनकी प्रशंसा आदि नहीं करता है। इसी प्रकार वह जिनमुनि, जिनशास्त्र और जिनदेव के सिवाय अन्य कुगुरु आदिको भय,
"स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः ।। सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैर्विना ॥२६॥
रत्नकरंड श्रावकाचार ।