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छहढाला
जाते समय गली घर वगैरह की मर्यादा करनेको वृतिपरिसंख्यान तप कहते हैं। घी, दूध, दही आदि पुष्टिकारक रसोंके त्याग करनेको रसपरित्याग तप कहते हैं । शून्य भवन, निर्जनवन आदि एकान्त स्थान में सोना, उठना बैठना सो विविक्तःशय्यासन तप है गर्मीके समय पर्वतकी शिखर पर वर्षा के समय वृक्षके मूल में और शीत काल में चौराहे पर ध्यान लगाना, रात्रिको प्रतिमा योग इत्यादि धारण करना सो कायक्लेश तप है । ये छह बहिरंग तप कहलाते हैं, क्योंकि इनका संबन्ध बाहरी द्रव्य खान-पान, शयन आसन आदिसे रहता है । संयमकी सिद्धि, ध्यान- अध्ययन की सिद्धि, राग भाव की शान्ति, इन्द्रियदर्प निग्रह, निद्रा - विजय, ब्रह्मचर्य - परिपालन, सन्तोष और प्रशम भावकी प्राप्ति तथा कर्मोंकी निर्जराके लिए उक्त छहों तपोंको धारण करना साधुओं का परम कर्तव्य माना गया है । अब अन्तरंग छह तपोंका वर्णन करते हैं: - प्रमादसे लगे हुए दोषोंकी शुद्धि करना प्रायश्चित्त तप है । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र में तथा इनके धारक पूज्य पुरुषोंमें आदर भाव रखना सो विनय तप है । आचार्य, उपाध्याय, रोगी साधु आदि की सेवा टहल आदि करना सो वैयावृत्यतप है । शास्त्रोंका अभ्यास करना, नवीन ज्ञानोपार्जनकी भावना रखना और आलस्य का त्याग करना सो स्वाध्याय तप है । पर वस्तुओं में अहंकार और ममकारका त्याग करना सो त्युत्सर्ग तप है । मनकी चंचलता, व्याकुलताको दूर कर उसे स्थिर करना सो ध्यान