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छठवी दाल
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तप है । छह अन्तरंग तप कहलाते हैं, क्योंकि, प्रथम तो इनके लिए किसी बाहरी द्रव्यकी आवश्यकता नहीं होती है । दूसरे अन्तरंग जो मन है, उसके नियमनके लिए ही उक्त सर्व तपोंका आचरण किया जाता है । इन अन्तरंग तपोंकी सिद्धिके द्वारा ही मनुष्य मुक्ति-लाभ करता है और प्रति समय असंख्यात - गुणित श्रेणीके द्वारा कर्मोंकी निर्जरा करता है । संचित कर्मोंके नाशके लिए तपके सिवाय अन्य कोई समर्थ नहीं है, अतएव मुमुक्षु जनोंको शक्तिके अनुसार अवश्य तपश्चरण करना चाहिए |
अब दश धर्मोका वर्णन किया जाता है: - दुष्ट जनोंके द्वारा आक्रोश, हंसी, गाली आदि दिये जाने पर, और मारन ताड़न किये जाने पर भी मनमें विकार भावका न होने देना सो उत्तम क्षमाधर्म है । जाति, कुल, धन, बलवीर्य, ज्ञान आदि का अहंकार नहीं करना सो मार्दवधर्म है । मन, वचन, काकी प्रवृत्तिको सरल रखना, मायाचारका सर्वथा त्याग करना सो आर्जवधर्म है । सदा सत्य वचन बोलना सो सत्यधर्म है । लोभकषायका सर्वथा त्याग करना सो शौचधर्म है । इन्द्रियोंके विषयों को वशमें रखना और छह कायके जीवोंकी दया पालना सो संयम धर्म है । पूर्वोक्त बारह प्रकारके तपोंको तपना सो तपो धर्म है । साधुओंके संयमकी रक्षार्थ, प्रासुक आहार, औषधि, शास्त्र, वसतिका वगैरहका दान देना सो त्याग धर्म है । शरीर आदिसे ममत्वका त्याग करना सो आकिंचन्य धर्म