Book Title: Chhahadhala
Author(s): Daulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
Publisher: B D Jain Sangh

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Page 198
________________ छठवीं ढाल अब उक्त-ध्यान-अवस्थाका माहात्म्य बतलाते हैं:यों चिन्त्य निजमें थिर भये तिन अकथ जो आनन्द लह्यो, सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अंहिमिन्द्रक नाहीं कह्यो। तबही शुकल ध्यानाग्नि-कर चउघाति विधि कानन दह्यो, सब लख्यो केवलज्ञानकरि भत्रिलोकको शिवमग कह्यो ।११॥ ___ अर्थ-इस प्रकार ध्यान अवस्थामें चिन्तवन करते हुए जब मुनिराज अपनी आत्मामें स्थिर हो जाते हैं, उस समय उनको जो अनिर्वचनीय आनन्द प्राप्त होता है, वह इन्द्र, नागेन्द्र, और अहिमिन्द्र तकको भी नहीं प्राप्त होता है, । इसी ध्यानकी अवस्थामें साधुजन शुक्लध्यानरूपी अग्निसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मरूपी कानब ( जंगल ) को जला देते हैं, उसी समय उनके केवल ज्ञान प्रगट होता है, जिसके द्वारा वे त्रैलोक्य और त्रिकालकी समस्त वस्तु ओंको प्रत्यक्ष देखने लगते हैं और फिर भव्यजीवोंके हितार्थ मोक्ष-मार्मका उपदेश करते हैं। ___ इस प्रकार अरहंत अवस्था प्राप्त करनेके पश्चात् वे सिद्ध अवस्थाको प्राप्त होते हैं, इस बातका वर्णन करते हैं:पुनि घाति शेष अघाति विधि छिन मां है अष्टम भृ वमैं, चसु कर्म विनसे सुगुख वसु सम्यक्त्व आदिक सब लस ।

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