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छहढाला __ अन्तमें ग्रन्थकार अपने ग्रन्थ को समाप्त करते हुए भव्य. जनोंसे एक म र्मिक अपील करते हैं:यह राग-प्राग दहै मदा तातै समामृत सेइये, चिर भजे विषय कषाय, अबतो त्याग निज-पद वेइये । कहा रच्यो पर-पदमें, न तेरो पद यह, क्यों दुख सहै. अब 'दौल' हाउ सुखी स्वपद-रचि, दाव मति चूको यहै।१५। __अर्थ यह विषयतृष्णारूपी रागाग्नि अनादिकालसे निरन्तर तुझे और संसारी जीवोंको जला रही है, इसलिए समतारूपी अमृतका सेवन करना चाहिए । विषय-कषायोंको तूने चिरकालसे सेवन किया है, अबतो उनका त्याग करके निज पदको पानेका प्रयत्न करना चाहिए । तू पर-पदमें क्यों आसक्त हो रहा है ? यह पर-पद तेरा नहीं है, क्यों ब्यर्थमें इसके पीछे तू दुःख सह रहा है ? हे दौलतराम ! तू अपनी आत्माके पदमें तल्लीन होकर सुखी हो जा, इस प्राप्त हुए अवसर को मत चूक ।
इस प्रकार पण्डित दौलतरामने अपने आपको सम्बोधन करनेके बहाने संसारके भव्य जीवोंको सावधान किया है कि नर भव पानेका ऐसा सुयोग बार-बार प्राप्त नहीं होता। तू चाहे कि मैं विषय-तृष्णाको पूरा करलू, फिर आत्मकार्य में लगूंगा, सो यह त्रिकालमें भी पूरी होने वाली नहीं है, उसकी पूर्तिका तो एक मात्र उपाय सन्तोष रूप अमृतका पान करना है, सो तू