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छहढाला है । स्त्री मात्रका मन, वचन कायसे त्याग करना, पूर्व में भोगे भोगों का स्मरण तक भी नहीं करना और शुद्ध चैतन्य रूप ब्रह्ममें विचरण करना सो ब्रह्मचर्य नामका दशवां धर्म है । आत्माके परम शत्रु विषय और कषाय हैं । इनमेंसे कषायोंके जीतनेके लिए प्रारंभके पांच धर्मोका, और इन्द्रियोंकी विषयप्रवृत्तिको रोकनेके लिए अन्तके पांच धर्मोंका उपदेश दिया गया है।
इस प्रकार मुनियोंके सकल चारित्रका वणन किया । अब स्वरूपाचरण चारित्रका वर्णन करते हैं। आत्माके शुद्ध, निर्विकार सच्चिदानन्द स्वरूपमें विचरने को स्वरूपाचरण कहते हैं। वह स्वरूपाचरण चारित्र किस प्रकार प्रगट होता है, यह बतलानेके लिए ग्रन्थकार उत्तर पद्यको कहते हैं:जिन परम पैनी सुबुधि छैनी डारि अन्तर भेदिया, वरणादि अरु रागादित निज भाव को न्याग किया। निज माहि निज के हेतु निजकर आपको आपै गह्यो, गुण गुणी, ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय मंझार कछु भेद न रह्यो ॥८॥
अर्थ-जब ध्यानकी अवस्थामें साधु अत्यन्त तीक्ष्ण धार बाली सुबुद्धि ( भेदविज्ञान ) रूपी छैनीको अपने भीतर डालकर अनादि कालसे लगे हुए परके सम्बन्धको छिन्न-भिन्न कर कर देते हैं और पुद्गलके गुण रूप, रस, गंध, स्पर्शसे तथा राग, द्वष आदि विकारी भावोंसे निज-आत्मिक भावको पृथक