Book Title: Chhahadhala
Author(s): Daulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
Publisher: B D Jain Sangh

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Page 192
________________ छठवीं ढाल १८७ रत्नत्रय से सदा, नहिं भवसुख कदा | तप तर्फे द्वादश, घरै वृष दश, मुनि साथमें वा एक विचरें, चहैं यों है सकल- संयम चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब, जिस होत प्रकटै आपनी निधि, मिटै परकी प्रवृति सब ||७|| अर्थ-सकल संयम के धारण करने वाले साधुगरण बारह प्रकारके तपको तपते हैं, दशप्रकार धर्मको धारण करते हैं और सदाकाल रत्नयत्रका सेवन-आराधन करते हैं । वे 'साधुगण संघके साथ में विहार करते हैं और वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध या संयम विशेषके धारक हो जाने पर कदाचित अकेले भी विहार करते हैं । ये दिगम्बर मुद्रा धारक साधु कभी भी सांसारिक सुखकी वांछा नहीं करते हैं । इस प्रकार यहां तक सकलसंयम चारित्रका वर्णन किया । अब आगे स्वरूपाचरण चारित्रका वर्णन करते हैं, जिसके होनेसे अपने आत्माकी निधि प्रगट होती है और परकीपुद्गलकी और उसके निमित्तसे उत्पन्न होने वाली सर्व प्रवृत्ति मिट जाती है। विशेषार्थ - बारह तपोंका स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिए:अनशन - खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकारके आहारका त्यागकर उपवास, वेला, तेला आदि रूपसे उपवास करने को अनशन कहते हैं। प्रमाद और आलस्य के जीतने के लिए भूख से कम खानेको मौदर्य तप कहते हैं । गोचरीको

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