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छहढाला (४) भवपरिवर्तन-नरक भवकी सबसे जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की है और सबसे उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरकी है । सबसे जघन्य स्थितिके नारकियोंमें उत्पन्न होकर मरा और अन्यअन्य पर्यायमें उत्पन्न होकर पुनः यह जीव नरकमें एक समय अधिक स्थितिका धारक नारकी हुआ । इस प्रकार एक एक समय अधिक करके तेतीस सागर तक की समस्त स्थितियोंका धारक नारकी हुआ। इसी प्रकार तिर्यंच और मनुष्योंकी सर्व जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तकी बतलाई है उस स्थितिका धारक मनुष्य और तिर्यंच होकर क्रमशः एक एक समय बढ़ते हुए तीन पल्यकी उत्कृष्ट स्थितिका धारक मनुष्य और तिर्यंच हुआ । देवोंमें इसी प्रकार जघन्य दश हजार वर्षकी स्थितिसे लगाकर उत्कृष्ट मिथ्यादृष्टि देवों की इकतीस सागर की स्थिति तक एक एक समय बढ़ते हुए समस्त स्थितियों का धारक देव हा । इस प्रकार चारों गतियोंकी जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति तककी समस्त पर्यायोंके धारण करने को एक भव परिवर्तन कहते हैं । इस जीवने इस प्रकारके अनन्त भव परिवर्तन आज तक किये हैं।
(५) भाव परिवर्तन-प्रकृतिबन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध और, इन चार प्रकारके कर्मबन्धके कारण
* णिरयादि जहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लिया दु गेवेज्जा । मिच्छत्तसंसिदेण हु बहुमो वि भवटिदी भमिदा ॥२८॥
बारस-अगुवेक्खा