Book Title: Chhahadhala
Author(s): Daulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
Publisher: B D Jain Sangh

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Page 181
________________ १७६ छहढाला रहित देव भी मर कर मिध्यात्वके वशसे एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है और धर्मसे रहित चक्रवर्ती भी महा आपदाके घर नरक में पड़ता है । धर्मसे विहीन मनुष्य इष्ट भोगादिकके पानेके लिए बड़े साहस के काम करता है परन्तु नाना अनिष्टों को ही प्राप्त होता है । इस प्रकार धर्म और अधर्मका प्रत्यक्ष फल देखकर हे भव्य जीवो ! धर्मका दूरसे ही परिहार करो और धर्मका सदा आचरण वा आराधन करो" । ऐसा विचार करना सो धर्म भावना है। इन बारह भावनाओंका सदा चिन्तवन करनेसे मनुष्यका चित्त संसार, देह और भोगोंसे विरक्त हो जाता है, पर-पदार्थोंमें अनुराग नहीं रहता और आत्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिए वह तत्पर हो जाता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि अनादिकाल से आज तक जितने भी जीव सिद्ध हुए हैं, वर्तमान में हो रहे हैं और आगे होंगे, वे सब इन बारह भावनाओंके चिन्तवन कर ही • देवो विधम्मचन्तो मिच्छित्तव सेण तरुवरो होदि । चक्को विधम्मरहियो विडइ गरए न सम्पदे होदि ||४३३|| धम्मविहगो जीवो कुणइ सज्यं पि साहसं जइ वि । तो विं पावदि इट्ठ सुट्ठ, ण गिट्ठ परं लहदि || ४३५ ॥ । इय पच्चक्खं पिच्छिय धम्म धम्माण विविह्नमाह धम्मं यरह सया पावं दूरेण परिहरह || ४३६ ॥ स्वामिका ०

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