Book Title: Chhahadhala
Author(s): Daulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
Publisher: B D Jain Sangh

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Page 180
________________ पांचवीं ढाल १७५ रिक सम्पत्तिको चाहता है, पर सच्चे धर्ममें आदर नहीं करता । जिस धर्म प्रसाद से अत्यन्त दुर्लभ मोक्ष सुख प्राप्त हो सकता है, उससे सांसारिक सम्पदाओं का मिलना कौनसा कठिन कार्य है ? ऐसा जान कर विवेकी पुरुषोंको सदा जिन धर्मकी आराधना करना चाहिए। इस सत्य धर्म के प्रभावसे एक तिर्यंच भी मर कर उत्तम देव हो जाता है, चांडाल भी देवेन्द्र बन जाता है । इस धर्म के प्रसादसे अग्नि शीतल हो जाती है । सर्प सुवर्णमाल बन जाता है और देवता भी किंकर बन कर सदा सेवा करने को तैयार रहते हैं । तीक्ष्ण तलवार भी पुष्पों का हार बन जाती है, दुर्जय शत्रु भी अत्यन्त हितैषी मित्र बन जाते हैं, हलाहल विष भी अमृत बन जाता है, तथा महान विपत्ति भी सम्पत्तिरूप परिणत हो जाती है किन्तु धर्मसे मह जीवो कुणइ रई पुत्तकलत्तेसु कामभोगे सु तह ज जिंणिदधम्मे तो लीलाए सुहं लहदि ॥ ४२४ ॥ लच्छ वंछेइ गरो व सुधम्मेसु श्रायरं कुरणइ ||४२५ ॥ . उत्तमधम्मेरा जुदो होदि तिरिक्खो वि उत्तमो देवो । चंडालो व सुरिंदो उत्तमधम्मेरण संभवदि || ४३०|| वि य होदि हिमं होदि भुयंगो वि उत्तमं रयणं । जीवस्स सुधम्मादो देवाविय किंकरा होति ॥ ४३१ ॥ * तिक्खं खम्गं माला दुज्जयरिउणों सुहंकरा सुयणा । हालाहलं पि श्रमियं महापया संपया दोदि ॥ ४३२ ॥

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