Book Title: Chhahadhala
Author(s): Daulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
Publisher: B D Jain Sangh

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Page 185
________________ १८० छहढाला भी तीन प्रकार की होती है- काष्ठकी, पाषाणकी और चित्राम की। इनको मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदन से गुणा करने पर (३x६ = १८) अठारह भेद होते हैं । इन्हें पांच द्रव्येन्द्रिय और पांच भावेन्द्रियसे गुणा करने पर (१८x१०= १८०) एक सौ अस्सी भेद होते हैं। उन्हें क्रोध, मान, माया और लोभसे गुणा करने पर (१८०४ = ७२०) सातसौ बीस हुए । उक्त दोनों प्रकार के भेदों को जोड़ देने पर ( १७२८० + ७२०=१८०००) पूरे अठारह हजार भेद हो जाते हैं । साधु गण उक्त अठारह हजार प्रकारसे सर्व प्रकार की स्त्रियोंके त्यागी होते हैं अतएव वे अठारह हजार शीलके धारक कहलाते हैं । अब आगे ग्रन्थकार पांचवे महाव्रत और पांच समितियों का वर्णन करते हैं : अन्तर चतुर्दस भेद बाहर संग दशघानें टलें, परमाद तजि चौकर मही लखि समिति ईर्यातें चलें । जग - सुहितकर, सब हितहर, श्रुति-सुखद सबसंशय हरें, भ्रम रोग-हर, जिनके वचन - मुख चंद्र अमृत भरें ॥२॥ क्यालीस दोष बिना सुकुल श्रावक तने घर असन को, लैं तप बढ़ावन हेतु नहिं तन पोषते तजि रसनि को । शुचि ज्ञान संयम उपकरण लखिकें गहैं लखिकें धरें, निर्जन्तु थान विलोकि तन - मलमूत्र श्लेष्म परिहरें ॥ ३॥

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