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छहढाला
१५८ देने वाले ये धन, धाम, पुत्र स्त्री आदि कैसे एक हो सकते हैं ? कदापि नहीं।
विशेषाथ-सदा साथ रहने वाले शरीरसे भी आत्मा भिन्न है, ऐसा विचार करना सो अन्यत्व भावना है, क्योंकि शरीर ऐन्द्रियिक है, आत्मा अंतीन्द्रिय है, शरीर जड़ है, आत्मा ज्ञाता दृष्टा है; शरीर अनित्य है, आत्मा नित्य है; शरीर अपवित्र है आत्मा पवित्र है। कर्मोंसे और शरीरसे आत्मा उसी प्रकार भिन्न है, जैसे म्यानसे तलवार भिन्न होती है। ऐसा जानकर हे आत्मन! शरीरसे ममता छोड़, उसे अपना मत जान । किन्तु जो ज्ञाता दृष्टा आत्मा है उसे ही 'स्व' समझकर उसकी प्राप्तिका प्रयत्न कर । इस प्रकारके वार वार चिन्तवन करनेको अन्यत्व भावना कहते हैं । इस भावनासे शरीर आदिमें निःस्पृहता पैदा होती है, उससे तत्वज्ञान जागृत होता है और फिर यह आत्मा मोक्ष की प्राप्तिके लिए प्रयत्न करता है।
अब अशुचि भावनाका वर्णन करते हैं :
* देहात्मकोऽहमित्यात्मजातु चेतसि मा कृथाः। कर्मतो हि पृथक्त्वं ते त्वं निचोलासि सन्निभः ॥४७॥ अध्र वत्वादमेध्यत्वादचित्त्वाच्चान्यदङ्गकम् । चित्त्वनित्यत्वमेध्यत्वैरात्मन्नन्योऽसि कायतः ।।४।।
क्षत्र चू० लं० ११ । सर्वार्थसिद्धि० अ०६, सूत्र ७ ।
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