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पांचवी ढाल
समान इस शरीरके विनाश होने पर भी कोई खेद नहीं रहेगा। इस प्रकारके चिन्तवन करनेको अशुचिभावना कहते हैं । इसके वार वार चिन्तवन करनेसे शरीरसे निर्वेद होता है जिससे यह जीव संसार-समुद्रसे पार होनेका प्रयत्न करता है।
अब आस्रव भावनाका स्वरूप कहते हैंजो योगन की चपलाई, तातें है प्रास्रव भाई । प्रास्रव दुखकार घनेरे, बुधिवंत तिन्हें निरवरे ॥६॥
अर्थ-हे भाई! मन, वचन और काय इन तीनों योगोंमें जो चंचलता होती है, उसीसे कर्मोंका आस्रव होता है। यह आस्रव अत्यन्त दुःख देने वाला है, इसलिए बुद्धिमान लोग उसे रोकनेका प्रयत्न करते हैं।
विषशेषार्थ-यद्यपि योगोंकी चंचलतासे कर्मोंका आस्रव होता है, तथापि उनमें स्थितिबंध और अनुभागबंध नहीं पड़ता, है अतएव वह आस्रव जीवको दुखदायी भी नहीं है। किन्तु कषायोंसे युक्त योगोंके निमित्तसे जो कर्मोंका आस्रव होता है, वह अत्यन्त
* एवं पिशितपिण्डस्य क्षयिणोऽक्षयशंकृतः । गात्रस्यात्मन्क्षयात्पूर्व तत्फलं प्राप्य तत्त्यज ॥५३॥ स्यात्तसारं वपुः कुर्यास्तथात्मंस्तत्क्षयेऽप्यभीः । आत्तसारेचदाहेऽपि न हि शोचन्ति मानवाः ॥५४॥
क्षत्र चू० लं. ११ । सर्वार्थसिद्धि अ०६ सू. ७ ॥